भारत में हिरासत में मृत्युएँ

पाठ्यक्रम: GS2/राजव्यवस्था और शासन

संदर्भ

  • सर्वोच्च न्यायालय ने 25 वर्षीय युवक की हिरासत में हुई मृत्यु के लिए कथित रूप से ज़िम्मेदार दो पुलिस अधिकारियों को गिरफ्तार करने में विफल रहने पर मध्य प्रदेश सरकार और केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) की कठोर आलोचना की।

भारत में हिरासत में मृत्युएँ 

  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार, 2016 और 2022 के बीच भारत में हिरासत में 11,650 मौतें हुईं।
    • अकेले उत्तर प्रदेश में 2,630 हिरासत में मृत्युएँ दर्ज की गईं, जो देश में सबसे अधिक है।
  • मजिस्ट्रियल जाँच: एनएचआरसी और सरकारी आंकड़ों के 2023 के विश्लेषण से पता चलता है कि 2017 और 2022 के बीच, हिरासत में हुई मृत्युओं के संबंध में देश भर में केवल 345 मजिस्ट्रियल जाँच के आदेश दिए गए, जिसके परिणामस्वरूप केवल 123 गिरफ्तारियाँ हुईं।
  • कमज़ोर समूह: एनएचआरसी के आंकड़ों से पता चलता है कि 1996 और 2018 के बीच हिरासत में हुई 71% मृत्युएँ  गरीब या कमज़ोर पृष्ठभूमि के बंदियों की थीं।

भारत में हिरासत में मृत्युएँ क्यों सामान्य हैं?

  • पुलिस व्यवस्था की औपनिवेशिक विरासत: भारतीय पुलिस व्यवस्था अभी भी 1861 के पुलिस अधिनियम से काफी प्रभावित है, जिसे सेवा के बजाय नियंत्रण के लिए बनाया गया था।
    • इससे एक सत्तावादी मानसिकता उत्पन्नं होती है जहाँ प्रायः कानूनी प्रक्रियाओं पर बल प्रयोग को प्राथमिकता दी जाती है।
  • कमज़ोर जवाबदेही तंत्र: हिरासत में हुई मृत्युओं की जाँच प्रायः एक ही पुलिस विभाग द्वारा की जाती है, जिससे पक्षपात होता है।
  • जाँच ​​के एक उपकरण के रूप में यातना: खराब प्रशिक्षण और फोरेंसिक बुनियादी ढाँचे की कमी के कारण, पुलिस प्रायः कबूलनामा निकालने के लिए थर्ड-डिग्री तरीकों का सहारा लेती है।
  • हाशिए पर और कमज़ोर समूह: अधिकांशतः पीड़ित कमज़ोर सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आते हैं।
    • क़ानूनी साक्षरता और संसाधनों की कमी परिवारों को न्याय पाने से रोकती है।
  • सुरक्षा उपायों का खराब कार्यान्वयन: संविधान के अनुच्छेद 21 और 22 के अंतर्गत सुरक्षा उपायों, डी.के. बसु दिशानिर्देश (1997), राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के निर्देशों और सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसलों की प्रायः अनदेखी की जाती है।
    • चिकित्सा जाँच, गिरफ्तारी ज्ञापन और रिश्तेदारों को सूचित करने जैसी अनिवार्य आवश्यकताओं का नियमित रूप से उल्लंघन किया जाता है।

निहितार्थ

  • कानून के शासन का क्षरण: यह दर्शाता है कि अनुच्छेद 21 – जीवन का अधिकार, अनुच्छेद 22 – मनमानी गिरफ्तारी से सुरक्षा जैसे संवैधानिक सुरक्षा उपायों का नियमित रूप से उल्लंघन किया जा रहा है।
    • इससे न्याय प्रणाली में जनता का विश्वास कम होता है।
  • मानवाधिकार छवि: ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, भारत को UNHRC में आलोचना का सामना करना पड़ रहा है।
    • यह अन्य देशों में मानवाधिकारों के मुद्दों पर बोलते समय भारत के नैतिक अधिकार को कमजोर करता है।
  • पुलिस-राज्य की धारणा: हिरासत में होने वाली मृत्युओं की उच्च संख्या भारत को एक कल्याण-उन्मुख लोकतंत्र के बजाय एक पुलिस राज्य के रूप में स्थापित कर सकती है।
  • कमज़ोर आपराधिक न्याय प्रणाली: यह आधुनिक पुलिस व्यवस्था, फोरेंसिक और प्रौद्योगिकी-संचालित तरीकों को अपनाने में अक्षमता को दर्शाता है।
संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानूनी ढाँचे
संयुक्त राष्ट्र चार्टर (1945): यह मानवाधिकारों के संवर्धन सहित संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों और सिद्धांतों को निर्धारित करता है।
मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (1948): यह यातना का निषेध करता है और निर्दोषता की धारणा को सुनिश्चित करता है।
नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा (1966): यह जीवन के अधिकार की रक्षा करता है और यातना का निषेध करता है।
नेल्सन मंडेला नियम, जिन्हें आधिकारिक तौर पर कैदियों के साथ व्यवहार हेतु संयुक्त राष्ट्र मानक न्यूनतम नियम 2015 के रूप में जाना जाता है, अपनी स्वतंत्रता से वंचित सभी व्यक्तियों के साथ मानवीय व्यवहार के लिए न्यूनतम मानक स्थापित करते हैं।
मानवाधिकारों पर यूरोपीय सम्मेलन (1950): यह व्यक्तिगत गरिमा और न्याय तंत्र तक पहुँच को मान्यता देता है।

भारत में हिरासत में होने वाली मृत्युओं पर अंकुश लगाने के लिए कानूनी पहल

  • सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देश (डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, 1997): इसने गिरफ्तारी और हिरासत से संबंधित अनिवार्य सुरक्षा उपाय निर्धारित किए: रिश्तेदारों को सूचित करना, गिरफ्तारी ज्ञापन रखना, चिकित्सा परीक्षण, कानूनी परामर्श, 24 घंटे के अंदर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करना।
    • इन दिशानिर्देशों को अनुच्छेद 141 के अंतर्गत प्रवर्तनीय कानून माना जाता है।
  • दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) – धारा 176: यह हिरासत में हुई मृत्युओं के मामलों में मजिस्ट्रेट द्वारा न्यायिक जाँच अनिवार्य करता है, इससे पुलिस नियंत्रण से बाहर जाँच सुनिश्चित होती है।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी): एनएचआरसी सभी हिरासत में हुई मृत्युओं की 24 घंटे के अंदर अनिवार्य रिपोर्टिंग की आवश्यकता रखता है।
    • परामर्श जारी करता है और राज्यों से अनुपालन रिपोर्ट माँगता है।
  • सीसीटीवी कैमरों पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश (2020, परमवीर सिंह सैनी मामला): सभी पुलिस थानों और जेलों में नाइट विज़न और ऑडियो वाले सीसीटीवी कैमरे लगाने का निर्देश दिया।
    • निगरानी के लिए राज्य और जिला स्तर पर स्वतंत्र समितियों का गठन करने का आदेश दिया।
  • न्यायिक निगरानी: उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय नियमित रूप से हिरासत में हुई मृत्युओं के मामलों में हस्तक्षेप करते हैं, मुआवज़ा देने का आदेश देते हैं और पुलिस सुधारों की निगरानी करते हैं।
  • आपराधिक कानून सुधार (2023): भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस), 2023 (सीआरपीसी का स्थान लेती है) गिरफ़्तारियों में अधिक पारदर्शिता, फोरेंसिक विधियों के उपयोग और नागरिक-केंद्रित प्रक्रियाओं के प्रावधान प्रस्तुत करती है।
    • भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस), 2023 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (बीएसए), 2023 दंडात्मक और साक्ष्य संबंधी कानूनों का आधुनिकीकरण करते हैं, जिससे स्वीकारोक्ति-आधारित पुलिस व्यवस्था पर निर्भरता कम होती है।

सुधार हेतु अनुशंसाएँ

  • विधि आयोग की रिपोर्टें:
    • भारतीय विधि आयोग की 69वीं रिपोर्ट (1977): इसमें वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के समक्ष स्वीकारोक्ति को स्वीकार्य बनाने के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम में धारा 26ए जोड़ने का प्रस्ताव रखा गया था।
    • भारतीय विधि आयोग की 273वीं रिपोर्ट में एक यातना-विरोधी कानून की सिफ़ारिश की गई थी, जिसमें कहा गया था कि भारत के अवर्तमान कानूनी सुरक्षा उपाय अपर्याप्त हैं।
  • पुलिस सुधार: सर्वोच्च न्यायालय के प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ (2006) के निर्देशों को लागू करें, जिनमें शामिल हैं:
    • पुलिस के जाँच और कानून-व्यवस्था संबंधी कार्यों का पृथक्करण
    • पुलिस शिकायत प्राधिकरणों की स्थापना।
  • प्रौद्योगिकी का अनिवार्य उपयोग: पूछताछ कक्षों में सीसीटीवी कवरेज, पूछताछ के डिजिटल रिकॉर्ड और बॉडी कैमरा का उपयोग सामान्य होना चाहिए।
  • न्यायिक सुधार: हिरासत में हुए अपराधों के लिए त्वरित न्यायालयों और दोषी अधिकारियों के लिए कठोर दंड आवश्यक हैं।

निष्कर्ष

  • हिरासत में मृत्युएँ भारत के लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों के लिए चिंता का विषय बनी हुई हैं।
  • हालाँकि सरकार ने कानूनी सुरक्षा उपाय, न्यायिक निर्देश और संस्थागत तंत्र शुरू किए हैं, लेकिन उनकी प्रभावशीलता सख्त प्रवर्तन, पुलिस सुधारों एवं प्रौद्योगिकी-संचालित जाँच की ओर बदलाव पर निर्भर करती है।

Source: TH

 

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