प्रिसीजन बायोथेरेप्यूटिक्स

पाठ्यक्रम: GS2/स्वास्थ्य

संदर्भ

  • प्रिसीजन बायोथेरेप्यूटिक्स आनुवंशिक विज्ञान, आणविक जीवविज्ञान और डेटा एनालिटिक्स को एक साथ लाकर ऐसी चिकित्सा विकसित करता है जो बीमारी के कारण की पहचान एवं सुधार करती है।

प्रिसीजन बायोथेरेप्यूटिक्स क्या हैं?

  • प्रिसीजन बायोथेरेप्यूटिक्स उन चिकित्सीय हस्तक्षेपों को संदर्भित करता है जो रोगी की विशिष्ट आनुवंशिक, आणविक या कोशिकीय प्रोफ़ाइल के आधार पर डिज़ाइन और अनुकूलित किए जाते हैं। यह क्षेत्र कई तकनीकों पर आधारित है, जैसे:
    • जीनोमिक और प्रोटीओमिक विश्लेषण: किसी व्यक्ति के आनुवंशिक और प्रोटीन संकेतों को डिकोड करना ताकि बीमारी का कारण बनने वाले उत्परिवर्तन या विकारों की पहचान की जा सके।
    • जीन एडिटिंग थेरेपी: सीधे जीनों को संशोधित करना ताकि मूल समस्याओं को ठीक किया जा सके (उदाहरण: रक्त विकारों के लिए CRISPR-आधारित उपचार)।
    • mRNA और न्यूक्लिक एसिड थेरेप्यूटिक्स: RNA अणुओं का उपयोग करके कोशिकाओं को विशिष्ट प्रोटीन बनाने या हानिकारक प्रोटीन को दबाने का निर्देश देना।
    • मोनोक्लोनल एंटीबॉडी और बायोलॉजिक्स: प्रयोगशाला में निर्मित अणु जो बीमारी के सटीक लक्ष्यों से जुड़ते हैं, जैसे कैंसर कोशिकाएँ या वायरल प्रोटीन।
    • AI-आधारित दवा खोज: इसमें बिग डेटा और मशीन लर्निंग का उपयोग करके यह अनुमान लगाया जाता है कि अणु शरीर के अंदर कैसे परस्पर क्रिया करते हैं।

प्रिसीजन बायोथेरेप्यूटिक्स की आवश्यकता

  • जटिल बीमारियों का बढ़ता बोझ: मधुमेह, हृदय रोग और कैंसर जैसी गैर-संचारी बीमारियाँ देश में लगभग 65% मृत्युओं का कारण हैं।
  • प्रिसीजन: विशेषकर कैंसर के लिए, पारंपरिक उपचार (जैसे कीमोथेरेपी) प्रायः गंभीर दुष्प्रभाव उत्पन्न करते हैं; लक्षित बायोलॉजिक्स या जीन/कोशिका उपचार अधिक सटीक हो सकते हैं।
  • भारत की आनुवंशिक विविधता: भारत की जनसंख्या अत्यधिक आनुवंशिक रूप से विविध है, जिसका अर्थ है कि “वन-साइज़-फिट्स-ऑल” दवाएँ सभी उप-जनसंख्या पर समान रूप से कार्य नहीं कर सकतीं।
  • स्थानीय समाधान: विदेशी देशों में बनाई और परीक्षण की गई दवाएँ भारतीय संदर्भ में प्रभावी रूप से कार्य नहीं कर सकतीं।

चुनौतियाँ

  • नियामक ढाँचे की कमी: भारत में जीन और कोशिका उपचारों के लिए स्पष्ट नियामक ढाँचा नहीं है।
    • अधिकांश दिशानिर्देश उभरती तकनीकों के चिकित्सीय उपयोग को सीमित करते हैं, लेकिन उपचार का दायरा परिभाषित नहीं है।
  • लागत और वहनीयता: प्रिसीजन बायोथेरेप्यूटिक्स विकसित और निर्मित करने में महंगे होते हैं। इससे वे भारत की बड़ी जनसंख्या के लिए अप्राप्य हो सकते हैं।
  • इंफ्रास्ट्रक्चर और क्षमता: बायोलॉजिक्स और उन्नत उपचारों के लिए स्थानीय निर्माण क्षमता सीमित है।

भारत के प्रयास

  • जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने प्रिसीजन बायोथेरेप्यूटिक्स को “अर्थव्यवस्था, पर्यावरण और रोजगार के लिए जैव प्रौद्योगिकी” नीति के अंतर्गत छह प्रमुख क्षेत्रों में से एक के रूप में पहचाना है।
  • मैपिंग: भारतीय अनुसंधान संस्थान जैसे इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ बायोमेडिकल जीनोमिक्स और ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट विभिन्न जनसंख्या समूहों में आनुवंशिक विविधता एवं रोग संवेदनशीलता को मैप करने के प्रयासों का नेतृत्व कर रहे हैं।
    • निजी क्षेत्र में कई बायोफार्मा कंपनियाँ प्रिसीजन थेरेपी की खोज कर रही हैं।

आगे की राह

  • वैश्विक प्रिसीजन मेडिसिन बाजार 2027 तक $22 बिलियन से अधिक होने की संभावना है।
  • भारत का कुशल कार्यबल, डेटा एनालिटिक्स की ताकत और लागत लाभ इसे सस्ती प्रिसीजन थेरेपी का संभावित केंद्र बनाते हैं।
  • सख्त डेटा संरक्षण और सहमति ढाँचे के बिना, जीनोमिक जानकारी का दुरुपयोग किया जा सकता है।
  • बायोलॉजिक्स निर्माण में भारत की विशेषज्ञता घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों बाजारों के लिए अत्याधुनिक उपचारों के विकास का और समर्थन करेगी।

Source: TH

 

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