लोकसभा में प्रतिभूति बाजार संहिता विधेयक 2025 का परिचय

पाठ्यक्रम: GS2/ शासन; GS3/ अर्थव्यवस्था

संदर्भ 

  • केंद्रीय वित्त मंत्री ने लोकसभा में प्रतिभूति बाज़ार संहिता विधेयक, 2025 प्रस्तुत किया।

परिचय

  • यह विधेयक निम्नलिखित अधिनियमों को एकीकृत करने का प्रस्ताव करता है:
    • प्रतिभूति अनुबंध (विनियमन) अधिनियम, 1956
    • भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) अधिनियम, 1992
    • डिपॉज़िटरी अधिनियम, 1996

मुख्य प्रावधान

  • SEBI की संरचना में सुधार: SEBI बोर्ड की शक्ति 9 से बढ़ाकर 15 सदस्यों (अध्यक्ष सहित) तक करने का प्रस्ताव है। पुनर्गठित बोर्ड में शामिल होंगे:
    • अध्यक्ष
    • केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त दो अधिकारी
    • भारतीय रिज़र्व बैंक का एक पदेन सदस्य
    • अन्य ग्यारह सदस्य, जिनमें कम से कम पाँच पूर्णकालिक सदस्य होंगे (वर्तमान में तीन पूर्णकालिक सदस्य हैं)।
    • SEBI बोर्ड के सदस्यों को निर्णय-निर्माण में भाग लेने से पूर्व अपने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हितों का प्रकटीकरण करना अनिवार्य होगा।
  • अपराधमुक्तिकरण और प्रवर्तन ढाँचा: विधेयक में “लघु, प्रक्रियात्मक और तकनीकी प्रकृति” के उल्लंघनों को अपराध की श्रेणी से हटाकर नागरिक दंड में बदलने का प्रस्ताव है, ताकि व्यापार करने में आसानी हो एवं अनुपालन भार कम हो।
    • विधेयक “अवैध लाभ या हानि” को नागरिक दंड के अंतर्गत लाएगा और दंड केवल गंभीर मामलों जैसे इनसाइडर ट्रेडिंग या गैर-सार्वजनिक जानकारी के आधार पर व्यापार करने तक सीमित होंगे।
  • निरीक्षण पर सीमा: यदि किसी नियम या संहिता के प्रावधान का उल्लंघन हुआ है, तो उल्लंघन की तिथि से आठ वर्ष बीत जाने पर निरीक्षण नहीं किया जा सकेगा।

विधेयक का महत्व 

  • यह अनुपालन भार को कम करने, नियामक शासन में सुधार करने और प्रौद्योगिकी-प्रेरित प्रतिभूति बाज़ारों की गतिशीलता को बढ़ाने हेतु सिद्धांत-आधारित विधायी ढाँचा बनाने का प्रयास करता है।
  • विधेयक निवेशक संरक्षण को सुदृढ़ करने और देश के वित्तीय बाज़ारों में व्यापार करने की सुगमता को बढ़ाने का लक्ष्य रखता है।
  • कानूनों के एकीकरण और दंडों के तार्किकीकरण के माध्यम से यह भारत को वैश्विक प्रतिस्पर्धी वित्तीय बाज़ार बनाने के उद्देश्य का समर्थन करता है।

विधेयक की चिंताएँ

  • SEBI में शक्तियों का केंद्रीकरण: विधेयक SEBI को विधायी (नियम-निर्माण), कार्यकारी (प्रवर्तन), जाँच और न्यायिक शक्तियाँ प्रदान करता है।
    • ऐसा केंद्रीकरण शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन माना जाता है, जो अधिकार के दुरुपयोग को रोकने एवं संस्थागत संतुलन सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है।
  • विधायी कार्यों का प्रत्यायोजन: कई प्रमुख नीतिगत विषय, जैसे विनियमन का दायरा, पंजीकरण आवश्यकताएँ, दंड, छूटें, और यहाँ तक कि “प्रतिभूतियों” की परिभाषा भी अधीनस्थ विधान (नियमों और विनियमों) पर छोड़ दी गई है।
  • लोकतांत्रिक जवाबदेही: कार्यपालिका और नियामक को व्यापक विवेकाधिकार देकर संसद की भूमिका केवल सक्षम बनाने वाली संस्था तक सीमित हो जाती है, न कि वास्तविक कानून बनाने वाली प्राधिकरण तक।
  • बलपूर्वक प्रवर्तन शक्तियाँ: तलाशी, ज़ब्ती, संपत्ति की कुर्की, बैंक खातों को फ्रीज़ करना, और एकतरफा अंतरिम आदेश जैसी व्यापक शक्तियाँ, पर्याप्त सुरक्षा उपायों के बिना प्रदान की गई हैं।

आगे की राह

  • SEBI के अंदर जाँच, प्रवर्तन और न्यायिक कार्यों का पृथक्करण सुनिश्चित किया जाए ताकि संस्थागत पक्षपात रोका जा सके।
  • नियमित रिपोर्टिंग के माध्यम से संसदीय निगरानी और जवाबदेही को सुदृढ़ किया जाए।
  • अनुपातिक, जोखिम-आधारित नियामक दृष्टिकोण अपनाया जाए, जिसमें आपराधिक दंड केवल गंभीर बाज़ार दुरुपयोग तक सीमित हों।

Source: AIR







 

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