एक समान राष्ट्रीय न्यायिक नीति की आवश्यकता

पाठ्यक्रम: GS2/ राजव्यवस्था, न्यायपालिका

संदर्भ

  • हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत ने एक समान राष्ट्रीय न्यायिक नीति (Uniform National Judicial Policy) का प्रस्ताव रखा है, ताकि सम्पूर्ण भारत के न्यायालय मामलों का निर्णय अधिक स्पष्टता, स्थिरता और पूर्वानुमेयता के साथ कर सकें, जिससे न्याय तक पहुँच एवं न्यायपालिका में जनविश्वास सुदृढ़ हो।

राष्ट्रीय न्यायिक नीति क्या है?

  • राष्ट्रीय न्यायिक नीति एक संस्थागत ढांचा होगी (संवैधानिक संशोधन नहीं), जो सभी न्यायालयों के लिए न्यायिक तर्क, केस प्रबंधन, तकनीक के उपयोग और न्याय तक पहुँच के मानकों पर सामान्य सिद्धांत एवं दिशा-निर्देश तय करेगी।
  • इसका उद्देश्य अधिकारों, प्रक्रियाओं और उपायों की व्याख्या को विभिन्न न्यायक्षेत्रों में सामंजस्यपूर्ण बनाना है, साथ ही न्यायिक स्वतंत्रता और संघीय संरचना का सम्मान करना है।

समान राष्ट्रीय न्यायिक नीति की आवश्यकता

  • असंगत न्यायिक तर्क और फोरम शॉपिंग: विभिन्न उच्च न्यायालय प्रायः प्रमुख प्रश्नों (जैसे सेवा कानून, जमानत मानक, आरक्षण, इंटरनेट शटडाउन) पर विरोधाभासी निर्णय देते हैं, जिससे याचिकाकर्ताओं को बार-बार सर्वोच्च न्यायालय का रुख करना पड़ता है और फोरम शॉपिंग/बेंच हंटिंग को बढ़ावा मिलता है—जिसे हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अंतिमता और अनुच्छेद 141 को कमजोर करने वाला बताया है।
    • एक राष्ट्रीय नीति न्यायालयों को संरचित तर्क, उदाहरण के बेहतर उपयोग और बाध्यकारी सिद्धांतों की स्पष्ट अभिव्यक्ति का पालन करने के लिए प्रेरित कर सकती है, जिससे अनावश्यक भिन्नता सीमित हो।
  • न्याय तक पहुँच का संकट: 2024 तक भारतीय न्यायालयों में 4.5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। औसत निपटान समय जटिलता एवं न्यायक्षेत्र के आधार पर 5–20 वर्ष तक हो सकता है।
    • अधीनस्थ न्यायालयों में लगभग 30–40% और उच्च न्यायालयों में 25% रिक्तियाँ हैं।
    • अपर्याप्त न्यायालय कक्ष, पुस्तकालय और डिजिटल सुविधाओं जैसी भौतिक संरचना की कमी भी है।
  • लागत, दूरी, भाषा बाधाएँ: मुकदमेबाजी गरीबों के लिए प्रायः महंगी होती है; दूरस्थ न्यायालयों, विशेषकर उच्च न्यायालयों तक यात्रा लागत एवं समय बढ़ाती है, और अंग्रेज़ी या अपरिचित भाषाओं में कार्यवाही बड़ी संख्या में वादकारियों को अलग-थलग कर देती है।
  • तकनीक और संरचना का विखंडित उपयोग: कुछ न्यायालय वर्चुअल सुनवाई, ई-फाइलिंग और डिजिटल केस प्रबंधन का सक्रिय उपयोग करते हैं, जबकि अन्य पीछे रह जाती हैं, जिससे नागरिकों के लिए असमान पहुँच और असंगत अनुभव बनता है।

न्यायिक नीति से संबंधित मौजूदा पहलें

  • ई-कोर्ट्स परियोजना और NJDG: ई-कोर्ट्स चरण III (2023–27) एकीकृत डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म, सार्वभौमिक ई-फाइलिंग, वर्चुअल कोर्ट और 3,108 करोड़ से अधिक पृष्ठों के पुराने रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण सुनिश्चित करता है।
  • राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG): लंबित मामलों और निपटान पर राष्ट्रीय स्तर का भंडार है, जिसका उपयोग नीति-निर्माण और निगरानी के लिए किया जाता है।
  • न्याय वितरण और कानूनी सुधार हेतु राष्ट्रीय मिशन: लंबित मामलों को कम करने और संरचना को सुदृढ़ करने पर केंद्रित है, जिसमें फास्ट ट्रैक कोर्ट, विशेष न्यायालय(POCSO, वाणिज्यिक) और ADR व लोक अदालतों को सुदृढ़ करना शामिल है।
  • कानूनी सेवा प्राधिकरण और लोक अदालतें: मुफ्त कानूनी सहायता और समय-समय पर लोक अदालतें न्याय तक पहुँच और लंबित मामलों को कम करने का प्रयास करती हैं, विशेषकर हाशिए पर रहने वाले समूहों के लिए।
  • न्यायिक सम्मेलन और “सर्वोत्तम प्रथाएँ”: मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन और ई-समिति दिशा-निर्देश केस प्रबंधन, जमानत प्रथाओं एवं तकनीक के उपयोग पर सामंजस्य को प्रोत्साहित करते हैं, लेकिन ये सॉफ्ट लॉ हैं और अक्सर असमान रूप से लागू होते हैं।

राष्ट्रीय न्यायिक नीति से जुड़ी चुनौतियाँ

  • न्यायिक स्वतंत्रता बनाम नीति एकरूपता: एक केंद्रीकृत न्यायिक नीति को न्यायिक विवेक को सीमित करने या विविध सामाजिक वास्तविकताओं वाले संघीय देश में “एक आकार सभी के लिए” दिशा-निर्देश थोपने के रूप में देखा जा सकता है।
    • उच्च न्यायालयों का संवैधानिक दर्जा (अनुच्छेद 214–231) है; कठोर नीति उनके स्वायत्तता में हस्तक्षेप या न्यायपालिका के लिए अर्ध-कार्यकारी “नीति” क्षेत्र बनाने के रूप में देखी जा सकती है।
  • राज्यों में विविध परिस्थितियाँ: लंबित मामलों, संरचना, भाषा और मामलों की संरचना में व्यापक भिन्नता है।
  • संरचनात्मक मुद्दे: उच्च न्यायालयों में 25–35% रिक्तियाँ और अधीनस्थ न्यायालयों में भी लगातार कमी है, जिससे लंबित मामले बढ़ते हैं।
    • सरकार सबसे बड़ी वादी है, जो लगभग आधे लंबित मामलों के लिए उत्तरदायी है।
  • कार्यान्वयन घाटा और डेटा गुणवत्ता: केस प्रबंधन, समयसीमा, अंडरट्रायल समीक्षा समितियों, जमानत पर विगत प्रस्ताव प्रायः कागज़ पर ही रहते हैं।
    • NJDG डेटा में भी कम रिपोर्टिंग और असंगत टैगिंग जैसी समस्याएँ हैं।
  • विश्वास घाटा और अभिजात्यवाद की धारणा: यदि नीति शीर्ष-से-नीचे बनाई जाती है और ट्रायल जजों, बार एसोसिएशनों और कानूनी सहायता उपयोगकर्ताओं से सार्थक इनपुट नहीं लिया जाता, तो यह अभिजात्यवादी या जमीनी वास्तविकताओं से अलग-थलग लग सकती है।

आगे की राह

  • मूल संवैधानिक सिद्धांत: नीति को अनुच्छेद 14, 21, 39A और प्रस्तावना के न्याय आदेश में स्पष्ट रूप से निहित करें।
  • न्यायिक तर्क का सामंजस्य: मॉडल न्यायिक तर्क मानक विकसित करें, जैसे मुद्दों का स्पष्ट निर्धारण, बाध्यकारी मिसाल की पहचान, और यह स्पष्ट करना कि कोई निर्णय अनुच्छेद 141 के अंतर्गत कानून-घोषित है या नहीं।
  • केस प्रबंधन के लिए राष्ट्रीय ढांचा: विभिन्न मामले श्रेणियों के लिए समय मानक तय करें, NJDG आधारित निगरानी के साथ।
  • न्यायिक संरचना और तकनीक को सुदृढ़ करना: ई-कोर्ट्स चरण III को पूरी तरह लागू करें, 100% डिजिटल रिकॉर्ड प्रबंधन और ई-फाइलिंग सुनिश्चित करें।
  • लागत, भाषा और दूरी की बाधाओं को कम करना: गरीब वादकारियों के लिए न्यायालय शुल्क को सीमित करें; ग्रामीण और जनजातीय क्षेत्रों में कानूनी सहायता पैनल का विस्तार करें।
  • प्रशिक्षण, नैतिकता और विविधता: “राष्ट्रीय वाद नीति 2.0” को आगे बढ़ाएँ ताकि सरकार की तुच्छ अपीलों को कम किया जा सके और उपयुक्त मामलों में पूर्व-मुकदमा ADR एवं समझौते को अनिवार्य किया जा सके।
दैनिक मुख्य परीक्षा प्रश्न
[प्रश्न] भारत के मुख्य न्यायाधीश ने विभिन्न न्यायक्षेत्रों में सामंजस्य को बढ़ावा देने हेतु एक समान राष्ट्रीय न्यायिक नीति (Uniform National Judicial Policy) का आह्वान किया है। भारत की न्याय वितरण प्रणाली के सामने उपस्थित चुनौतियों के संदर्भ में ऐसी नीति की आवश्यकता का परीक्षण कीजिए।

Source: TH

 

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