भारत में हिरासत में मृत्यु (Custodial Deaths)

पाठ्यक्रम: GS2/ शासन

संदर्भ

  •  तमिलनाडु के शिवगंगा ज़िले में हाल ही में हुई एक हिरासत में मृत्यु ने एक बार फिर पुलिस हिरासत में व्यवहार और प्रक्रियाओं को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित किया है।

हिरासत में मृत्यु क्या है? 

  • हिरासत में मृत्यु (Custodial Death) उस स्थिति को दर्शाती है जब किसी व्यक्ति की पुलिस या न्यायिक हिरासत में रहते हुए मृत्यु हो जाती है। 
  • यह मृत्यु मुकदमे से पहले, पूछताछ के दौरान या सजा के बाद भी हो सकती है। 
  • इसका कारण यातना, लापरवाही, चिकित्सकीय सहायता न मिलना या संदिग्ध परिस्थितियाँ हो सकती हैं।
  • यह निम्नलिखित संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है:
    • अनुच्छेद 20(1): किसी व्यक्ति को कानून में निर्धारित सजा से अधिक दंड नहीं दिया जा सकता।
    • अनुच्छेद 20(3): आत्म-आरोपण के विरुद्ध संरक्षण; दबाव में दिया गया कोई भी स्वीकारोक्ति अमान्य होती है।
    • अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा सुनिश्चित करता है, जिसमें पुलिस/न्यायिक हिरासत भी शामिल है।
  • भारत में हिरासत में मृत्यु की स्थिति
  • संसदीय आंकड़ों के अनुसार, 2016-17 से 2021-22 के बीच भारत में कुल 11,656 हिरासत में मृत्यु दर्ज की गईं।
  • उत्तर प्रदेश 2,630 मृत्यु के साथ शीर्ष पर रहा, जबकि तमिलनाडु (490) दक्षिणी राज्यों मेंअग्रणी रहा।
  • हालांकि, सभी हिरासत में मृत्यु पुलिस की यातनाओं के कारण नहीं होतीं।

भारत में हिरासत में मृत्यु के प्रमुख कारण

  • कानूनी शून्यता:
    • भारत ने संयुक्त राष्ट्र यातना विरोधी सम्मेलन (UNCAT), 1997 पर हस्ताक्षर तो किए हैं, लेकिन उसे अनुमोदित नहीं किया है, जिससे वह इसके प्रावधानों को लागू करने के लिए बाध्य नहीं है।
    • यातना निवारण विधेयक (2010) संसद में लंबित रह गया और बाद के प्रयास भी ठंडे बस्ते में चले गए या कमजोर कर दिए गए।
  • प्रक्रियात्मक खामियाँ और देरी:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) मामले में हिरासत में अत्याचार रोकने के लिए महत्वपूर्ण दिशानिर्देश दिए थे।
    • फिर भी, न्यायालय प्रायः मजिस्ट्रेटी जांच पर निर्भर रहती हैं, जिनमें प्रक्रियात्मक त्रुटियाँ और देरी आम हैं।
  • संस्थागत प्रोत्साहन:
    • हिंसा के माध्यम से प्राप्त स्वीकारोक्तियाँ अब भी साक्ष्य के रूप में मानी जाती हैं, जबकि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के अंतर्गत वे अमान्य हैं।
  • जवाबदेही की कमजोरी:
    • हिरासत में मृत्यु की जांच सामान्यतः उसी विभाग द्वारा की जाती है जो इसमें शामिल होता है।
    • न्यायिक जांचें भी अक्सर धीमी, अपारदर्शी और निष्कर्षहीन होती हैं।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप:
    • भारत में पुलिस व्यवस्था पर राजनीतिक दबाव का प्रभाव रहता है, जिससे निष्पक्ष कार्रवाई कमजोर होती है और दोषी अधिकारियों को संरक्षण मिलता है।

अंतरराष्ट्रीय कानूनी ढाँचे

  • संयुक्त राष्ट्र चार्टर (1945): मानवाधिकारों को बढ़ावा देने के उद्देश्य और सिद्धांत निर्धारित करता है।
  • सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा (1948):यातना पर प्रतिबंध लगाती है और निर्दोषता की धारणा सुनिश्चित करती है।
  • नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय वाचा (1966): जीवन के अधिकार की रक्षा करती है और यातना पर रोक लगाती है।
  • नेल्सन मंडेला नियम (2015): सभी बंदियों के साथ मानवीय व्यवहार के लिए न्यूनतम मानक निर्धारित करते हैं।
  • यूरोपीय मानवाधिकार सम्मेलन (1950): व्यक्तिगत गरिमा और न्याय तक पहुँच के अधिकार को मान्यता देता है।

सुधार के लिए सिफारिशें

  • कानून आयोग की रिपोर्टें:
    • 69वीं रिपोर्ट (1977): वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के समक्ष दी गई स्वीकारोक्तियों को साक्ष्य के रूप में मान्य करने हेतु भारतीय साक्ष्य अधिनियम में धारा 26A जोड़ने की सिफारिश की।
    • 273वीं रिपोर्ट: भारत में मौजूदा कानूनी सुरक्षा उपायों को अपर्याप्त मानते हुए एक अलग यातना विरोधी कानून की सिफारिश की।
  • पुलिस सुधार:
    • उच्चतम न्यायालय  के प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ (2006) के निर्देशों को लागू करें, जैसे:
      • पुलिस के जांच कार्य और कानून-व्यवस्था कार्य को अलग करना।
      • पुलिस शिकायत प्राधिकरणों की स्थापना।
  • प्रौद्योगिकी का अनिवार्य उपयोग:
    • पूछताछ कक्षों में CCTV, डिजिटल रिकॉर्डिंग और बॉडी कैमरों का उपयोग अनिवार्य किया जाए।
  • न्यायिक सुधार:
    • हिरासत अपराधों के लिए फास्ट-ट्रैक न्यायालयों की स्थापना और दोषी अधिकारियों के लिए कठोर सजा आवश्यक है।

निष्कर्ष 

  • हिरासत में मृत्यु केवल प्रशासनिक विफलता नहीं हैं, बल्कि भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में गहरे संकट का संकेत हैं।
  •  संविधानिक गारंटी, कानूनी सुरक्षा और न्यायिक निर्णयों के बावजूद, हिरासत में यातना और दुर्व्यवहार व्यापक रूप से जारी हैं। 
  • भारत को न केवल अपने संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करनी चाहिए, बल्कि अंतरराष्ट्रीय दायित्वों को भी निभाना चाहिए—एक व्यापक यातना विरोधी कानून बनाकर, संस्थानों को सशक्त बनाकर और जवाबदेही सुनिश्चित करके।

Source: TH

 

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