पाठ्यक्रम: GS2/न्यायपालिका
संदर्भ
- भारत की न्यायिक प्रणाली में तत्काल सुधार की आवश्यकता है, क्योंकि विभिन्न न्यायालयों में 4.8 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें से कुछ दशकों से लंबित हैं।
भारतीय न्यायपालिका में लंबित मामले
- राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) के नवीनतम आँकड़ों के अनुसार:
- भारत का सर्वोच्च न्यायालय: लगभग 82,500 मामले लंबित हैं, जिनमें से लगभग 50% एक वर्ष से अधिक पुराने हैं।
- भारत के उच्च न्यायालय: लगभग 60 लाख मामले लंबित हैं, जिनमें से लगभग 55% एक वर्ष से अधिक पुराने हैं।
- इलाहाबाद और बॉम्बे उच्च न्यायालय: अकेले ही संयुक्त रूप से 17 लाख से अधिक लंबित मामलों का हिसाब रखते हैं।
- भारत के जिला न्यायालय: लगभग 4.8 करोड़ मामले लंबित हैं, जिनमें से 59.76% एक वर्ष से अधिक पुराने हैं।
- शीर्ष राज्य (लंबित मामलों में): उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल और राजस्थान।
- मामलेवार वितरण:
- दीवानी मामले: 1.1 करोड़ लंबित; 56.91% एक वर्ष से अधिक पुराने।
- आपराधिक मामले: 3.7 करोड़ लंबित; 60.62% एक वर्ष से अधिक पुराने।
- पूर्व-विवाद मामले: 13 लाख लंबित; 52.37% एक वर्ष से अधिक पुराने।

न्यायिक बैकलॉग के प्रमुख कारण
- न्यायाधीशों की कमी: सीमित पीठ शक्ति (34 न्यायाधीश) बनाम प्रति वर्ष 70,000 से अधिक मामलों का प्रवाह।
- उच्च न्यायालयों में लगभग 30% और जिला न्यायालयों में 20% पद रिक्त हैं।
- भारत में प्रति दस लाख लोगों पर केवल लगभग 21 न्यायाधीश हैं, जबकि अनुशंसित संख्या 50 है।
- कम निपटान दर: पिछले महीने केवल 12.8 लाख मामले निपटाए गए, जबकि लगभग 20 लाख नए मामले दर्ज हुए।
- प्रक्रियात्मक विलंब और अक्षमताएँ: विशेष अनुमति याचिकाएँ (SLPs), बार-बार स्थगन, खराब दस्तावेज़ीकरण और अपर्याप्त डिजिटल केस प्रबंधन।
- मैनुअल प्रक्रियाएँ, पुरानी केस प्रबंधन प्रणाली और स्वचालन की कमी न्याय वितरण को धीमा करती हैं।
- न्यायाधीश नियुक्तियों में विलंब: कोलेजियम सिफारिशों से नियुक्तियों में देरी।
- अवसंरचना की कमी: कई न्यायालयों में बुनियादी सुविधाओं, डिजिटल उपकरणों और पर्याप्त कर्मचारियों की कमी।
- रिकॉर्ड का अधूरा डिजिटलीकरण और न्यायालयों के बीच डेटा का कमजोर समन्वय।
- ADR का सीमित उपयोग: वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) और लोक अदालतों का अपर्याप्त उपयोग।
- महामारी बैकलॉग: COVID-19 लॉकडाउन ने 2020–2022 के बीच 30 लाख से अधिक लंबित मामले जोड़ दिए।
लंबित मामलों के उच्च स्तर के प्रभाव
- आर्थिक और व्यापारिक व्यवधान: धीमी न्यायपालिका आर्थिक जीवन्तता को बाधित करती है। निवेशक — घरेलू और विदेशी — ऐसे बाज़ार में प्रवेश करने से हिचकते हैं जहाँ अनुबंध प्रवर्तन में औसतन चार वर्ष से अधिक लगते हैं।
- वर्ल्ड बैंक के ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस इंडेक्स के अनुसार, ‘कॉन्ट्रैक्ट्स लागू करने’ में भारत का प्रदर्शन खराब है।
- आर्थिक पुनरुत्थान वहाँ फल-फूल नहीं सकता जहाँ कानून का शासन बाज़ारों की तुलना में धीमा चलता है।
- न्याय में देरी का अर्थ न्याय से वंचित होना: लंबी मुकदमेबाजी कानूनी प्रणाली की विश्वसनीयता को कम करती है। पीड़ित और आरोपी दोनों अनिश्चितता और मानसिक तनाव से पीड़ित होते हैं।
- प्रभावित कमजोर समूह:
- महिलाएँ: लंबित मामलों में 8% महिलाओं द्वारा दायर किए गए हैं।
- वरिष्ठ नागरिक: लंबित मामलों में 7% वरिष्ठ नागरिकों से संबंधित हैं।
- प्रभावित कमजोर समूह:
- न्यायिक संसाधनों पर दबाव: न्यायाधीश जटिल मामलों को पर्याप्त समय नहीं दे पाते, जिससे निर्णयों की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
- विवादों का चक्र: सरकार सबसे बड़ी वादी है, जो लगभग 50% मामलों में योगदान देती है। इससे एक दुष्चक्र बनता है जहाँ नए मामले निपटान से अधिक होते हैं, जिससे बैकलॉग और बढ़ता है।
सुधार उपाय
- ई-कोर्ट्स चरण III (2023–2027): एकीकृत केस डेटा और एआई-आधारित केस लिस्टिंग प्रणाली।
- राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण (NJIA): न्यायालय परिसरों के वित्तपोषण और निर्माण को सुव्यवस्थित करने हेतु।
- फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स: देशभर में 1,023 संचालित, मुख्यतः महिलाओं और बच्चों से संबंधित अपराधों के लिए।
- एआई पहल: SUPACE (SC) और SUVAS (अनुवाद एआई) जैसे प्रोजेक्ट्स मानव कार्यभार को कम करने हेतु।
- वर्चुअल सुनवाई विस्तार: महामारी के बाद सर्वोच्च न्यायालय और 25 उच्च न्यायालयों में जारी।
आगे की राह: न्यायपालिका में व्यापक सुधार
- अनुबंध प्रवर्तन: निवेशक अनुबंधों के प्रवर्तन से विश्वास को मापते हैं।
- यदि भारत को अपनी विकास गति बनाए रखनी है, तो न्यायिक गति को आर्थिक महत्वाकांक्षा के साथ सामंजस्यशील होगा।
- न्याय प्रक्रिया में अनंत नहीं हो सकता, बल्कि वादे में त्वरित होना चाहिए — दोनों साथ नहीं चल सकते।
- न्याय से क्षरण तक: भारत की कानूनी प्रणाली अपील की परत दर परत अनुमति देती है, और छोटे विवाद पूरे न्यायिक पिरामिड तक पहुँच जाते हैं, जिससे उच्च न्यायालय जाम हो जाते हैं।
- अपीलों को केवल उन मामलों तक सीमित करना चाहिए जिनमें कानून या संवैधानिक महत्व के महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल हों।
- तुलनात्मक मॉडल: सिंगापुर और यूके जैसे देशों में दक्षता और निष्पक्षता साथ-साथ मौजूद हैं।
- भारतीय बार काउंसिल (BCI) में सुधार: यह अब भी 1961 के ढाँचे में फंसा हुआ है।
- भारत के श्रेष्ठ विधि विद्यालयों से आए युवा पेशेवर निष्पक्ष अवसरों के लिए संघर्ष करते हैं।
- वंश और संपर्क, योग्यता से अधिक सफलता तय करते हैं। अदालतों में ‘फेस वैल्यू’ तैयारी से अधिक महत्व रखता है।
- भारतीय न्यायिक सेवा (IJS): इसकी स्थापना अवसरों का लोकतंत्रीकरण कर सकती है और संपर्कों पर योग्यता को प्राथमिकता दे सकती है।
- एडवोकेट्स (संशोधन) विधेयक, 2025: सीमित सरकारी प्रतिनिधित्व के माध्यम से जवाबदेही लाने का प्रयास किया गया, लेकिन स्वायत्तता के नाम पर अस्वीकार कर दिया गया।
- स्वायत्तता बिना जवाबदेही के अस्पष्टता उत्पन्न करती है, स्वतंत्रता नहीं।
- कनिष्ठ अधिवक्ताओं के पेशे में निष्पक्षता
- अनिवार्य वृति और प्रशिक्षु अनुबंधों को संस्थागत किया जाना चाहिए।
- व्हिसल-ब्लोअर सुरक्षा और POSH अनुपालन सार्वभौमिक होना चाहिए।
- एक स्वतंत्र शिकायत निवारण न्यायाधिकरण को राजनीतिक बार तंत्रों की जगह लेनी चाहिए।
- कानूनी पेशा विनियमन विधेयक: भारत को इसकी आवश्यकता है ताकि मानकीकृत वेतन संरचनाएँ, अनिवार्य सतत कानूनी शिक्षा, बार काउंसिलों का स्वतंत्र ऑडिट और वरिष्ठ अधिवक्ता पदनामों के लिए पारदर्शी मानदंड लाए जा सकें।
- सुधार वहीं से शुरू होना चाहिए जहाँ देरी शुरू होती है
- स्थगन सीमित और उचित होना चाहिए।
- विलंबित निर्णयों के लिए जवाबदेही लागू की जानी चाहिए।
- एआई-आधारित केस क्लस्टरिंग और डिजिटाइज्ड डॉकेट प्रबंधन को मैनुअल, कागज़-प्रधान प्रक्रियाओं की जगह लेनी चाहिए।
- यदि ऐसे समयबद्ध सुधार नहीं किए गए, तो न्यायपालिका न्याय का माध्यम न होकर देरी का स्मारक बन जाएगी।
| दैनिक मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न [प्रश्न] भारतीय न्यायिक प्रणाली के सामने प्रमुख चुनौतियों की समीक्षा कीजिए। सभी के लिए समयबद्ध और सुलभ न्याय सुनिश्चित करने हेतु किन सुधारों की आवश्यकता है? |
Previous article
भारतीय राज्यों का विकसित होता राजकोषीय क्षेत्र
Next article
भारतीय न्याय प्रणाली में सुधार की आवश्यकता