राज्यों के मार्गदर्शक और दार्शनिक के रूप में राज्यपालों की भूमिका

पाठ्यक्रम: GS2/ राजव्यवस्था और शासन

संदर्भ

  • भारत के मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई ने यह टिप्पणी की कि राज्यपालों को राज्य सरकारों के लिए “सच्चे मार्गदर्शक और दार्शनिक” की भूमिका निभानी चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी 

  • राज्यपाल की भूमिका: मुख्य न्यायाधीश ने बल दिया कि राज्यपाल विधानमंडल का हिस्सा होते हैं और शासन को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी साझा करते हैं। 
  • लोकतंत्र पर प्रभाव: विधेयकों पर लंबे समय तक कोई कार्रवाई न होना निर्वाचित विधानसभाओं के जनादेश को कमजोर करता है और संघवाद के संतुलन को खराब करता है।

विधेयकों पर राज्यपाल की स्वीकृति का संवैधानिक ढांचा 

  • अनुच्छेद 200: यह राज्यपाल की स्वीकृति प्रक्रिया को परिभाषित करता है। जब राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कोई विधेयक राज्यपाल को प्रस्तुत किया जाता है, तो उनके पास चार विकल्प होते हैं:
    • स्वीकृति देना: राज्यपाल विधेयक को मंजूरी दे सकते हैं, जिससे वह कानून बन जाता है।
    • स्वीकृति रोकना: राज्यपाल विधेयक को अस्वीकार कर सकते हैं, जिससे वह कानून नहीं बन पाता।
    • पुनर्विचार हेतु लौटाना: राज्यपाल विधेयक को सुझावों के साथ विधानमंडल को वापस भेज सकते हैं। हालांकि, यदि विधानमंडल बिना संशोधन के पुनः विधेयक पारित करता है, तो राज्यपाल को स्वीकृति देनी अनिवार्य होती है।
    • राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु आरक्षित करना: यदि विधेयक संविधान के विरुद्ध है, उच्च न्यायालय की शक्तियों को प्रभावित करता है, या केंद्रीय कानूनों से असंगत है, तो राज्यपाल इसे राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित कर सकते हैं।
  • अनुच्छेद 201: यदि कोई विधेयक राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित किया जाता है, तो राष्ट्रपति के पास दो विकल्प होते हैं:
  • स्वीकृति देना: विधेयक कानून बन जाता है।
  • स्वीकृति रोकना या पुनर्विचार हेतु लौटाना: राष्ट्रपति विधेयक को राज्य विधानमंडल को पुनर्विचार हेतु वापस भेज सकते हैं।
    •  यदि विधानमंडल विधेयक को फिर से पारित करता है, तो राष्ट्रपति को स्वीकृति देना अनिवार्य नहीं होता।

चिंताएँ 

  • वर्तमान अस्पष्टता: दोनों प्रावधानों में “यथाशीघ्र” शब्द का प्रयोग किया गया है, जिससे कई विपक्ष-शासित राज्यों में देरी हुई है। 
  • विधेयकों पर स्वीकृति में देरी: केरल ने प्रस्तुत किया कि उसके राज्यपाल के पास 7 से 23 महीनों से आठ विधेयक लंबित हैं।
    • तमिलनाडु, तेलंगाना, पंजाब और पश्चिम बंगाल ने भी इसी प्रकार की शिकायतें कीं। 
  • विधेयकों को लौटाए बिना स्वीकृति रोकने की ‘पॉकेट वीटो’ जैसी स्थिति ने राज्यपाल की निष्पक्षता और संवैधानिक मानदंडों के पालन पर प्रश्न उठाए हैं।

न्यायिक हस्तक्षेप

  •  शमशेर सिंह मामला (1974): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अधिकांश मामलों में राज्यपाल को मंत्रिपरिषद के परामर्श पर कार्य करना चाहिए। 
  • रमेश्वर प्रसाद मामला (2006): न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल द्वारा स्वीकृति न देने का निर्णय न्यायालय में चुनौती दिया जा सकता है और यदि असंवैधानिक पाया जाए तो परिवर्तित किया जा सकता है। 
  • नाबाम रेबिया बनाम उपाध्यक्ष मामला (2016): यह पुष्टि की गई कि राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं, जिससे मनमाने निर्णयों को रोका जा सके। 
  • पंजाब मामला (2023): राज्यपाल एक निर्वाचित प्राधिकारी नहीं हैं और वे विधायी प्रक्रिया को रोक नहीं सकते।
    • स्वीकृति रोकने के लिए संवैधानिक प्रक्रियाओं का पालन आवश्यक है। 
  • सर्वोच्च्य न्यायालय की टिप्पणी (2024): राज्यपाल की भूमिका मुख्यतः औपचारिक होती है और उन्हें निर्वाचित राज्य सरकार के शासन में बाधा नहीं डालनी चाहिए।

आगे की राह 

  • सहकारी संघवाद को सुदृढ़ करना: राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच नियमित परामर्श जैसे संस्थागत तंत्र घर्षण को कम कर सकते हैं। 
  • सरकारिया और पंची आयोग की सिफारिशों की पुनर्समीक्षा: दोनों आयोगों ने राज्यपालों को निष्पक्ष रूप से और संवैधानिक सीमाओं के अंदर कार्य करने की आवश्यकता पर बल दिया।

Source: TH

 

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