पाठ्यक्रम: GS1/ सामाजिक मुद्दा
समाचार में
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप गैर-कानूनी नहीं है और सहमति देने वाले वयस्कों को वैवाहिक स्थिति की परवाह किए बिना गरिमा एवं सुरक्षा के साथ साथ रहने का संवैधानिक अधिकार है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य अवलोकन
- लिव-इन रिलेशनशिप अपराध नहीं है: विवाह किए बिना साथ रहना भारत में किसी कानून का उल्लंघन नहीं है यदि दोनों साथी वयस्क हों और स्वतंत्र सहमति दें।
- जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार: न्यायालय ने बल दिया कि संविधान का अनुच्छेद 21 सभी व्यक्तियों को जीवन, गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है, जिसमें लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले लोग भी शामिल हैं।
- राज्य का संरक्षण का कर्तव्य: जब वयस्क साथ रहने का निर्णय लेते हैं, तो राज्य का कर्तव्य है कि उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करे, चाहे परिवार या समाज से खतरा क्यों न हो।
- सामाजिक नैतिकता बनाम संवैधानिक नैतिकता: न्यायालय ने स्पष्ट रूप से संवैधानिक नैतिकता को सामाजिक नैतिकता पर प्राथमिकता दी।
- विवाह का साक्ष्यात्मक अनुमान: न्यायालय ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 114 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 119(1) का उल्लेख किया।
- इन प्रावधानों के अनुसार यदि कोई पुरुष और महिला लंबे समय तक पति-पत्नी के रूप में साथ रहते हैं, तो कानून उन्हें विवाहित मान सकता है।

लिव-इन रिलेशनशिप पर प्रमुख उच्च न्यायालय के निर्णय
- तुलसा बनाम दुर्गतिया (2008): लंबे समय तक लिव-इन रिलेशनशिप से जन्मे बच्चों को अवैध नहीं माना जा सकता।
- इससे बच्चों की विरासत और गरिमा सुनिश्चित होती है।
- डी. वेलुसामी बनाम डी. पच्चैयम्मल (2010): न्यायालय ने घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत “विवाह के स्वरूप में संबंध” की अवधारणा स्पष्ट की।
- शर्तें रखीं जैसे कि जोड़ा खुद को पति-पत्नी के रूप में प्रस्तुत करे, कानूनी आयु का हो और विवाह के लिए अन्यथा योग्य हो।
- इंद्रा सरमा बनाम वी.के.वी. सरमा (2013): मान्यता दी कि लिव-इन रिलेशनशिप नैतिक रूप से विवादास्पद हो सकती है, लेकिन न्यायालयों को सामाजिक वास्तविकताओं से निपटना चाहिए।
- शफीन जहां बनाम असोकन के.एम. (2018): न्यायालय ने कहा कि अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार अनुच्छेद 21 का अभिन्न हिस्सा है।
Source: TOI