भारत में शिक्षा की लागत की कठोर वास्तविकता

पाठ्यक्रम: GS2/शिक्षा

संदर्भ

  • एनएसएस 80वां दौर (2025) के निष्कर्ष भारत की बुनियादी स्कूली शिक्षा पर चिंताजनक प्रवृत्ति को उजागर करते हैं: संवैधानिक गारंटी (अनुच्छेद 21A के अंतर्गत 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार) और नीतिगत महत्वाकांक्षाओं (राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020) के बावजूद, शिक्षा पर घरेलू व्यय बढ़ रहा है तथा निजी स्कूलों व कोचिंग पर बढ़ती निर्भरता के कारण पहुँच असमान होती जा रही है।

एनएसएस 80वें दौर सर्वेक्षण के प्रमुख निष्कर्ष

  • नामांकन प्रवृत्तियाँ (सरकारी बनाम निजी शिक्षा): राष्ट्रीय स्तर पर नामांकन सरकारी और निजी स्कूलों में इस प्रकार विभाजित है:
    • 55.9% सरकारी स्कूलों में
    • 11.3% निजी सहायता प्राप्त स्कूलों में
    • 31.9% निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों में
  • शहरी–ग्रामीण विभाजन
    • शहरी क्षेत्रों: 51.4% छात्र निजी स्कूलों में पढ़ते हैं।
    • ग्रामीण क्षेत्रों: केवल 24.3% छात्र निजी स्कूलों में पढ़ते हैं।
      • लिंग अंतर: निजी स्कूल नामांकन में मामूली अंतर, लड़के 34% बनाम लड़कियाँ 29.5%।
  • समय के साथ बढ़ता निजी नामांकन: 75वें एनएसएस दौर (2017–18) की तुलना में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में सभी शिक्षा स्तरों पर निजी नामांकन बढ़ा है।
    • यह निजी शिक्षा की बढ़ती प्राथमिकता को दर्शाता है — जिसे प्रायः बेहतर गुणवत्ता के रूप में देखा जाता है लेकिन इसकी लागत अधिक होती है।
  • शिक्षा की लागत:
    • ग्रामीण सरकारी स्कूलों: 25.3% छात्र शुल्क देते हैं।
    • शहरी सरकारी स्कूलों: 34.7% छात्र शुल्क देते हैं।
      • निजी स्कूलों: ग्रामीण या शहरी, 98% छात्र शुल्क देते हैं।
  • गृहस्थ उपभोग व्यय (HCES 2023–24) की तुलना में:
    • प्री-प्राइमरी निजी स्कूल की लागत सबसे गरीब 5% परिवारों की मासिक आय के बराबर है।
    • उच्च माध्यमिक निजी स्कूल की लागत तीसरे आय दशांश वाले परिवारों की आय के बराबर है।
      • यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि शिक्षा बुनियादी स्तर पर भी भारी वित्तीय भार बन गई है।
  • निजी कोचिंग: सीखने की छिपी हुई लागत
    • निजी ट्यूशन का प्रसार: अब यह समानांतर शिक्षा प्रणाली बन गई है।
      • ग्रामीण क्षेत्रों: 25.5% बच्चे निजी कोचिंग लेते हैं।
      • शहरी क्षेत्रों: 30.7% बच्चे ऐसा करते हैं।
    • भागीदारी कक्षा स्तर के साथ बढ़ती है — प्री-प्राइमरी में लगभग 10–13% से लेकर उच्च माध्यमिक में 40% से अधिक।
  • निजी कोचिंग पर व्यय:
    • ग्रामीण क्षेत्रों में औसत वार्षिक लागत ₹7,066
    • शहरी क्षेत्रों में औसत वार्षिक लागत ₹13,026 यह पहले से ही उच्च स्कूली शिक्षा लागत में और वृद्धि करता है।

सामाजिक-आर्थिक सहसंबंध

  • लागत भार और असमानता: निजी स्कूल छात्र सरकारी स्कूल छात्रों की तुलना में 9 गुना अधिक भुगतान करते हैं।
    • शहरी परिवार, विशेषकर तेलंगाना और दिल्ली में, शिक्षा पर अधिक व्यय करते हैं — ट्यूशन, परिवहन, डिजिटल उपकरणों सहित।
    • निम्न-आय वाले परिवारों पर वित्तीय भार अत्यधिक है, जो प्रायः आवश्यकताओं में कटौती कर निजी स्कूलिंग या कोचिंग का व्यय उठाते हैं।
  • नीतिगत कमियाँ: कोचिंग उद्योग पर सीमित नियमन या निगरानी है, जबकि एनईपी (2020) निजी ट्यूशन की समस्या को स्वीकार करता है।
    • सस्ती, उच्च-गुणवत्ता वाली सार्वजनिक शिक्षा की कमी परिवारों को निजी विकल्पों की ओर धकेलती है, जिससे सामाजिक-आर्थिक विभाजन सुदृढ़ होता है।
  • माता-पिता की आकांक्षाएँ और सामाजिक गतिशीलता: उच्च आय, माता-पिता की शिक्षा और शहरी निवास वाले परिवार कोचिंग को शैक्षणिक सफलता एवं सामाजिक प्रतिष्ठा में निवेश मानते हैं।
    • कई निजी स्कूल शिक्षक कम वेतन और अयोग्य होते हैं, बावजूद इसके कि निजी स्कूल शुल्क अधिक है, जिससे माता-पिता को निजी ट्यूशन पर अधिक व्यय करना पड़ता है।
  • असमानता और सार्वजनिक स्कूलिंग का पतन: निःशुल्क शिक्षा संवैधानिक अधिकार है। लेकिन महँगी निजी शिक्षा सामान्य होती जा रही है, जो असमानता को बढ़ावा देती है।
    • संपन्न परिवार निजी स्कूल और कोचिंग का व्यय उठा सकते हैं।
    • गरीब परिवार कम वित्तपोषित सरकारी स्कूलों पर निर्भर रहते हैं, जिससे सीखने के परिणाम अलग-अलग होते हैं।

भारत में सार्वजनिक स्कूलिंग सुधार के प्रयास

  • समग्र शिक्षा अभियान (2018): तीन पूर्ववर्ती योजनाओं का एकीकरण — सर्व शिक्षा अभियान (SSA), राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (RMSA), और शिक्षक शिक्षा (TE)।
    • उद्देश्य: प्री-प्राइमरी से कक्षा XII तक समावेशी और समान गुणवत्ता वाली शिक्षा सुनिश्चित करना।
  • पीएम श्री स्कूल (2022): भारत भर में 14,500 से अधिक मॉडल स्कूल विकसित करना।
    • आधुनिक बुनियादी ढाँचा और स्मार्ट कक्षाएँ।
    • एनईपी 2020 के अनुरूप समग्र, जिज्ञासा-आधारित शिक्षण।
    • पर्यावरणीय स्थिरता और अनुभवात्मक शिक्षा पर बल।
  • राष्ट्रीय डिजिटल शिक्षा वास्तुकला (NDEAR): एकीकृत डिजिटल शिक्षा ढाँचा तैयार करना।
    • DIKSHA प्लेटफ़ॉर्म: ई-सामग्री और शिक्षक प्रशिक्षण।
    • UDISE+: वास्तविक समय स्कूल डेटा।
    • क्षेत्रीय भाषाओं में डिजिटल शिक्षण संसाधन।
  • मिड-डे मील योजना (पीएम पोषण): पोषण स्थिति और स्कूल उपस्थिति में सुधार।
    • 11 करोड़ से अधिक बच्चे सरकारी एवं सहायता प्राप्त स्कूलों में।
    • कुछ राज्यों में प्री-प्राइमरी बच्चों और फोर्टिफाइड भोजन का समावेश।
  • भारतीय भाषा पुस्तक योजना (केंद्रीय बजट 2025–26): भारतीय भाषाओं में डिजिटल प्रारूप पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध कराना, ताकि समझ और पहुँच बढ़े।

आगे की राह: सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित स्कूलों को सुदृढ़ करना

  • असमानताओं को दूर करने के लिए तात्कालिक प्रणालीगत सुधार आवश्यक हैं।
  • सार्वजनिक शिक्षा को सुदृढ़ करना आवश्यक है ताकि शिक्षा अधिकार बने, विशेषाधिकार नहीं।
    • जर्नल ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज़ (2024) बताता है कि निजी ट्यूशन का स्कूल गुणवत्ता से नकारात्मक संबंध है — बेहतर स्कूलों के छात्र ट्यूशन पर कम निर्भर होते हैं।
  • सरकारी स्कूलों में शिक्षण मानक, बुनियादी ढाँचा और जवाबदेही सुधारने से निजी ट्यूशन पर निर्भरता घट सकती है तथा निःशुल्क शिक्षा पर सार्वजनिक विश्वास पुनर्स्थापित हो सकता है।

निष्कर्ष

  • भारत की संवैधानिक दृष्टि — निःशुल्क और सार्वभौमिक शिक्षा — अभी भी वास्तविकता से दूर है।
    • निजी स्कूल नामांकन में वृद्धि, उच्च ट्यूशन लागत और निजी कोचिंग पर बढ़ती निर्भरता के साथ शिक्षा कई भारतीय परिवारों के लिए सबसे बड़े घरेलू व्ययों में से एक बन गई है। 
  • भारत को तत्काल सार्वजनिक स्कूलिंग को पुनर्जीवित करने, समान वित्तपोषण सुनिश्चित करने और ‘सभी के लिए शिक्षा’ के संवैधानिक प्रतिबद्धता को बनाए रखने की आवश्यकता है, ताकि 2030 तक एनईपी 2020 का सार्वभौमिक शिक्षा लक्ष्य पूरा हो सके।
दैनिक मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न
[प्रश्न] भारत में बढ़ती शैक्षिक लागत के सामाजिक-आर्थिक निहितार्थों का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए। ये लागतें पहुँच, समानता और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के व्यापक लक्ष्यों को किस प्रकार प्रभावित करती हैं?

Source: TH

 

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