राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (DPSP)

0
14522
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत

भारतीय संविधान की एक विशेषता के रूप में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (DPSP) का उद्देश्य देश में एक न्यायपूर्ण और समानता पर आधारित समाज की स्थापना के लिए मार्गदर्शन करना है। सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के आदर्शों को अपनाते हुए, ये देश के शासन के लिए एक दिशा सूचक के रूप में कार्य करते हैं। NEXT IAS का यह लेख राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (DPSP), इसके अर्थ, संवैधानिक प्रावधानों, वर्गीकरण, विशेषताओं, महत्त्व, आलोचना और अन्य संबंधित पहलुओं को समझाने का प्रयास करता है।

  • भारतीय संदर्भ में, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (DPSP) भारतीय संविधान में निहित दिशानिर्देशों या सिद्धांतों के समूह को संदर्भित करता है।
  • नीति निर्देशक सिद्धांत, उन आदर्शों को दर्शाते हैं जिन्हें भारत में केंद्र एवं राज्य दोनों सरकारों को नीतियाँ और कानून बनाते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए।
  • राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के द्वारा एक बहुत ही व्यापक सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम का निर्माण किया जाता हैं जो सामाजिक-आर्थिक न्याय प्राप्त करने और एक आधुनिक एवं कल्याणकारी राज्य की नींव रखने में सहायता करते हैं।

भारतीय संविधान के भाग चार में अनुच्छेद 36 से 51 में राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों (DPSPs) से संबंधित विस्तृत प्रावधान हैं।

नोट : भारतीय संविधान में राज्य के नीति निदेशक तत्वों (DPSPs) का विचार ‘आयरिश संविधान’ से लिया गया है।

भारतीय संविधान में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (DPSP) की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

  • संवैधानिक निर्देश: ये तत्त्व विधायी, कार्यपालिका और प्रशासनिक से संबंधित मामलों में राज्यों के लिए संवैधानिक निर्देश हैं। इस प्रकार, ये तत्त्व नीतियाँ और कानून बनाने के दौरान राज्य द्वारा ध्यान रखने जाने वाले आदर्शों के रूप में कार्य करते हैं।
  • गैर- न्यायिक: मौलिक अधिकारों के विपरीत, जो कानूनी रूप से लागू करने योग्य होते हैं, DPSP अन्यायिक (non-justiciable) होते हैं। अर्थात् इनके उल्लंघन के लिए न्यायलयों द्वारा उन्हें कानूनी रूप से लागू नहीं किया जा सकता है और सरकारों को उन्हें लागू करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।
  • कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य: ये तत्त्व भारतीय संविधान की प्रस्तावना में परिकल्पित न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों को साकार करने का लक्ष्य रखते हैं। इस प्रकार, ये तत्त्व ‘कल्याणकारी राज्य’ की अवधारणा को मूर्त रूप प्रदान करते हैं।
  • सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र का लक्ष्य: ये तत्त्व एक व्यापक आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रमों का निर्माण करते हैं जिनके आधार पर देश में सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र स्थापित किया जा सकता हैं। इस प्रकार, ये एक आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य स्थापित करने का लक्ष्य रखते हैं।
  • सुशासन को बढ़ावा देना: ये तत्त्व सामाजिक-आर्थिक विकास के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए शासन में अनुकूलन और नवाचार की अनुमति देते हैं। इस प्रकार, ये तत्त्व सुशासन की पद्धतियों को बढ़ावा देते हैं।
  • ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ इंस्ट्रक्शन’ से समानता: जैसा कि डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने कहा था कि ये तत्त्व 1935 के भारत सरकार अधिनियम में उल्लिखित ‘निर्देशों के उपकरण’ (Instrument of Instructions) से मिलते जुलते हैं।
  • न्यायपालिका की सहायता: हालाँकि ये तत्त्व गैर-न्यायिक हैं, फिर भी ये किसी कानून की संवैधानिक वैधता की जाँच और निर्धारण में न्यायलयों की सहायता करते हैं।
    • जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णय दिया गया है, किसी भी कानून की संवैधानिकता का निर्धारण करते समय, यदि अदालत को यह पता चलता है कि विचाराधीन कानून किसी निर्देशक सिद्धांत को प्रभावी बनाने का प्रयास करता है, तो वह ऐसे कानून को अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समानता और विधि का समान संरक्षण) या अनुच्छेद 19 (छह स्वतंत्रताओं का संरक्षण) के संबंध में ‘उचित’ मान सकता है।
नोट
डॉ. बी.आर.अम्बेडकर ने राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों को भारतीय संविधान की “नवीन विशेषताएँ” बताया।
ग्रानविल ऑस्टिन ने राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों और मौलिक अधिकारों को “संविधान की आत्मा” के रूप में वर्णित किया है।

भारतीय संविधान के भाग IV में अनुच्छेद 36 से 51 में वर्णित DPSPs से संबंधित प्रावधानों का विस्तार से वर्णन इस प्रकार है।

अनुच्छेद 36 के अनुसार, भाग IV (DPSPs) में ‘राज्य’ शब्द का वही अर्थ है जो भाग III (मौलिक अधिकार) में है। इस प्रकार, भाग IV (DPSPs) के प्रयोजन के लिए ‘राज्य’ शब्द में निम्नलिखित शामिल हैं:

  • भारत सरकार और संसद अर्थात् केंद्र सरकार के कार्यपालिका और विधायी अंग।
  • राज्य सरकार और विधायिका अर्थात् राज्य सरकार के कार्यपालिका और विधायी अंग।
  • सभी स्थानीय प्राधिकरण अर्थात् नगरपालिकाएँ, पंचायत, जिला बोर्ड, सुधार ट्रस्ट आदि।
  • देश के अन्य सभी सार्वजनिक प्राधिकरण।

अनुच्छेद 37 के अनुसार, भाग IV (DPSP) में वर्णित प्रावधान किसी भी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होंगे, फिर भी, ये सिद्धांत देश के शासन में मौलिक हैं और राज्य का यह कर्तव्य होगा कि वह इन सिद्धांतों को कानून बनाते समय लागू करे।

DPSPs से संबंधित शेष प्रावधानों का उल्लेख आगामी अनुभागों में विस्तार से किया गया है।

यद्यपि संविधान ने नीति निदेशक सिद्धांतों को वर्गीकृत नहीं किया है, उनकी सामग्री और उद्देश्यों के आधार पर उन्हें तीन व्यापक श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

  • समाजवादी सिद्धांत
  • गाँधीवादी सिद्धांत
  • उदारवादी सिद्धांत

ये सिद्धांत समाजवाद की विचारधारा को अपनाते हुए लोकतांत्रिक समाजवादी राज्य की रूपरेखा तैयार करते हैं। कुल मिलाकर, ये तत्त्व सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करके एक कल्याणकारी राज्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं।

अनुच्छेदविवरणसंबंधित पहल
अनुच्छेद 38– सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक – न्याय आधारित सामाजिक व्यवस्था को सुनिश्चित करके लोगों के कल्याण को बढ़ावा देना तथा आय, स्थिति, सुविधाओं एवं अवसरों में असमानताओं को कम करना।– प्रधान मंत्री आवास योजना
– सार्वजनिक वितरण प्रणाली
– मनरेगा
– राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) की स्थापना
– राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) की स्थापना
अनुच्छेद 39सुनिश्चित करना है:-
– सभी नागरिकों के लिए आजीविका के पर्याप्त साधनों का अधिकार सुनिश्चित करना,
– सामुदायिक संसाधनों का समान वितरण,
– वित्त और उत्पादन के साधनों के संकेन्द्रण की रोकथाम,
– पुरुषों और महिलाओं के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन,
– श्रमिकों और बच्चों के स्वास्थ्य एवं क्षमता के बलात दुरुपयोग के विरुद्ध संरक्षण,
– बच्चों के स्वस्थ विकास के अवसर।
– मातृत्व लाभ कानून
– समाकलित बाल विकास योजना
– न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948
– समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976
– ग्रामीण आजीविका मिशन और शहरी आजीविका मिशन
– स्वयं सहायता समूहों (SHG) को बढ़ावा देना
– मिशन इंद्रधनुष
अनुच्छेद 39A– न्याय में समानता को बढ़ावा देना और गरीबों को निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करना।– राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण
– न्याय मित्र योजना
अनुच्छेद 41कार्य एवं शिक्षा के अधिकार तथा बेरोजगारी, बुढ़ापे, बीमारी और विकलांगता के मामलों में सार्वजनिक सहायता के अधिकार को सुरक्षित करना।– राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम – अन्नपूर्णा
– मनरेगा अधिनियम 2005
– विकलांग व्यक्तियों का अधिनियम 1995
– माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण एवं कल्याण अधिनियम 2007
अनुच्छेद 42– न्यायपूर्ण एवं मानवीय कार्य परिस्थितियों तथा मातृत्व राहत का प्रावधान करना।– पीएम मातृत्व वंदना योजना
– मातृत्व लाभ अधिनियम 2017
अनुच्छेद 43– सभी श्रमिकों के लिए जीविकायापन के लिए वेतन, जीवन स्तर और सामाजिक एवं सांस्कृतिक अवसरों को सुरक्षित करना।– 4 श्रम संहिताएँ
– मनरेगा अधिनियम
– सामाजिक सुरक्षा अधिनियम 2008
– आत्मनिर्भर भारत रोजगार योजना
अनुच्छेद 43A– उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाना।– श्रम कानून जैसे कि कारखाना अधिनियम 1948, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, अनुबंध श्रम अधिनियम 1970, आदि
– ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926
– श्रम न्यायालयों का एकीकरण।
अनुच्छेद 47– लोगों के पोषण स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा उठाना एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करना।– राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013
– पोषण अभियान
– वन नेशन वन राशन कार्ड

ये सिद्धांत गाँधीवादी विचारधारा पर आधारित हैं और राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान गाँधी जी द्वारा प्रतिपादित पुनर्निर्माण कार्यक्रम का प्रतिनिधित्व करते हैं।

अनुच्छेदविषय-वस्तुसंबंधित पहल
अनुच्छेद 40– ग्राम पंचायतों को संगठित करना और उन्हें स्वशासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने में सक्षम बनाने के लिए आवश्यक शक्तियाँ और अधिकार प्रदान करना।– 73वाँ और 74वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 1992
– पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम 1996
अनुच्छेद 43– ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तिगत या सहकारी आधार पर कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना।– खादी और हथकरघा बोर्ड
– खादी और ग्राम उद्योग आयोग (KVIC)
अनुच्छेद 43B– सहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त कार्यप्रणाली और लोकतांत्रिक नियंत्रण के पेशेवर प्रबंधन को बढ़ावा देना।– सहकारिता मंत्रालय की स्थापना
– युवा सहकार – सहकारी उद्यम सहायता और नवाचार योजना 2019
– 97वाँ संविधान संशोधन, 2011
– राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम अधिनियम, 1962
अनुच्छेद 46– अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों को बढ़ावा देना तथा उन्हें सामाजिक अन्याय और शोषण से सुरक्षा प्रदान करना है।– अनुच्छेद 15(3), 15(4), 15(5) के तहत मूल अधिकार
– अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989
– एससी/एसटी छात्रों के लिए पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति
– एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय
अनुच्छेद 47– स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मादक पेय पदार्थों और नशीली दवाओं के सेवन को रोकना।– नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट 1985
– सिगरेट के पैकेटों पर अनिवार्य स्वास्थ्य चेतावनी
– गुटका और ई-सिगरेट पर प्रतिबंध
अनुच्छेद 48गायों, बछड़ों और अन्य दुधारू एवं माल ढोने वाले मवेशियों के वध को प्रतिबंधित करना तथा उनकी नस्लों में सुधार करना।– राष्ट्रीय गोकुल मिशन
– कामधेनु योजना
– पशुधन संजीवनी योजना

ये सिद्धांत उदारवादी विचारधारा को दर्शाते हैं:

अनुच्छेदविषय – वस्तुसंबंधित पहल
अनुच्छेद 44– पूरे देश में सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करना।– विशेष विवाह अधिनियम 1954
– 1956 का हिंदू कोड बिल
अनुच्छेद 45– छह वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा और देखभाल प्रदान करना।– एकीकृत बाल संरक्षण योजना
– बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना
अनुच्छेद 48– कृषि एवं पशुपालन को आधुनिक एवं वैज्ञानिक आधार पर व्यवस्थित करना।– ई-NAM
– मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना
– राष्ट्रीय गोकुल मिशन
अनुच्छेद 48A– पर्यावरण की रक्षा एवं सुधार करना तथा वनों एवं वन्यजीवों की सुरक्षा करना।– भारतीय वन अधिनियम 1927
– वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972।
– पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986
– 2002 का जैविक विविधता अधिनियम।
– हरित भारत मिशन
अनुच्छेद 49– ऐसे कलात्मक या ऐतिहासिक रुचि के स्मारकों, स्थानों और वस्तुओं की रक्षा करना, जिन्हें राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित किया गया है।– 1966 का राष्ट्रीय ऐतिहासिक संरक्षण अधिनियम।
– प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थल और अवशेष अधिनियम 1958।
– पुरावशेष और कला खजाना अधिनियम 1972।
अनुच्छेद 50– राज्य की सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करना।– शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है।
– न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के मूल ढांचे का भाग है।
अनुच्छेद 51– अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देना तथा राष्ट्रों के बीच उचित एवं सम्मानजनक संबंध बनाए रखना।
– अंतर्राष्ट्रीय कानून और संधि दायित्वों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देना तथा
– अंतर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाने के लिए प्रोत्साहित करना।
– गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM)
– पंचशील सिद्धांत
– संयुक्त राष्ट्र शांतिरक्षा अभियान
  • संविधान में मूल रूप से शामिल राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों की सूची में समय के साथ कुछ परिवर्तन हुए हैं। विभिन्न संविधान संशोधनों ने मूल सूची में कुछ नए राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों को जोड़ा है। साथ ही, कुछ मौजूदा राज्य नीति निदेशक तत्त्वों को भी संविधान संशोधनों के माध्यम से संशोधित किया गया था।
  • इन परिवर्तनों और विकासों को निम्न प्रकार से देखा जा सकता है:

1976 के 42वें संशोधन अधिनियम ने मूल सूची में चार नए राज्य नीति निदेशक सिद्धांत जोड़े। इस संविधान संशोधन द्वारा जोड़े गए नए राज्य नीति निदेशक सिद्धांत नीचे सूचीबद्ध हैं:

अनुच्छेदविषय-वस्तु
अनुच्छेद 39– बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए अवसर सुरक्षित करना।
अनुच्छेद 39A– समान न्याय को बढ़ावा देना और गरीबों को निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान करना।
अनुच्छेद 43A– उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाना।
अनुच्छेद 48A– पर्यावरण की रक्षा एवं सुधार करना तथा वनों एवं वन्यजीवों की रक्षा करना।

1978 के 44वें संशोधन अधिनियम ने जैसा कि नीचे दिखाया गया है, एक नया राज्य नीति निदेशक सिद्धांत जोड़ा:

अनुच्छेदविषय-वस्तु
अनुच्छेद 38– आय, स्थिति, सुविधाओं और अवसरों में असमानताओं को कम करना।

2002 के 86वें संविधान संशोधन अधिनियम ने DPSP के संबंध में दो परिवर्तन किये:

  • अनुच्छेद 45 के विषयवस्तु को परिवर्तित किया। संशोधित निर्देश के अनुसार राज्य को सभी बच्चों के लिए छह वर्ष की आयु पूरी होने तक पूर्व-प्रारंभिक देखभाल और शिक्षा प्रदान करने की आवश्यकता रखता है।
  • प्राथमिक शिक्षा को अनुच्छेद 21ए के तहत एक मौलिक अधिकार बना दिया।

2011 के 97वें संशोधन अधिनियम ने एक नया राज्य नीति निदेशक सिद्धांत जोड़ा जैसा कि नीचे सूचीबद्ध है:

अनुच्छेदविषय-वस्तु
अनुच्छेद 43Bसहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त कार्यप्रणाली, लोकतांत्रिक नियंत्रण और व्यावसायिक प्रबंधन को बढ़ावा देना।

संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को प्रवर्तनीय (Non-Justiciable) नहीं बनाया। इसके पीछे कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:

  • अधिकारों की दो श्रेणियाँ: संविधान सभा में हुई चर्चाओं और बहसों के बाद यह निर्णय लिया गया कि व्यक्ति के अधिकारों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जाना चाहिए – प्रवर्तनीय (मौलिक अधिकारों के रूप में शामिल) और अप्रवर्तनीय (राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के रूप में शामिल)।
  • अपर्याप्त वित्तीय संसाधन: स्वतंत्रता के समय, देश के पास इन्हें पूरी तरह से लागू करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं थे।
  • अनुमानित बाधाएँ: देश भर में विशाल विविधता और सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को देखते हुए इनके प्रभावी कार्यान्वयन को महत्त्वपूर्ण चुनौतियों के रूप में देखा गया।
  • लचीलेपन की आवश्यकता: स्वतंत्रता के तुरंत पश्चात् एक राष्ट्र के रुप में भारत की कई महत्त्वपूर्ण प्राथमिकताएँ थीं। राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को कानूनी रूप से लागू करने से संभावित रूप से राज्य की क्षमता पर बोझ पड़ सकता था।
    • इसलिए, संविधान निर्माताओं ने यह निर्णय लिया कि कब, कहाँ और कैसे इन सिद्धांतों को लागू करना है, इस संबंध में लचीलापन होना चाहिए।
  • अप्रवर्तनीयता – राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के अप्रवर्तनीय होने का अर्थ है कि उनमें से अधिकांश केवल ” कागजी घोषणाओं (Pious Declarations)” के रूप में ही रह गए हैं।
  • अतार्किक रूप से व्यवस्थित – राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को न तो ठीक से वर्गीकृत किया गया है और न ही किसी सुसंगत दर्शन के आधार पर तार्किक रूप से व्यवस्थित किया गया है। जिस तरह से उन्हें व्यवस्थित किया गया है, वह अपेक्षाकृत महत्वहीन मुद्दों को सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक मुद्दों और आधुनिक मुद्दों को पुराने मुद्दों के साथ मिला देता है।
  • रूढ़िवादी प्रकृति – आलोचकों का तर्क है कि ये निर्देश ज्यादातर 19वीं सदी के इंग्लैंड के राजनीतिक दर्शन पर आधारित हैं और 21वीं सदी के भारत के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
  • सामाजिक वास्तविकताओं की अनदेखी – कुछ लोगों का तर्क है कि राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत भारत की विविध सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं की जटिलताओं को संबोधित करने में विफल रहते हैं, जिसके परिणामस्वरूप ऐसी नीतियाँ बनती हैं जो सभी नागरिकों की जरूरतों को प्रभावी ढंग से पूरा नहीं कर सकती हैं।
  • संवैधानिक संघर्ष – वे कई तरह के संवैधानिक संघर्षों को जन्म देते हैं जैसा कि नीचे देखा जा सकता है:
  • केंद्र और राज्यों के बीच – केंद्र इन सिद्धांतों के कार्यान्वयन के संबंध में राज्य सरकारों को निर्देश दे सकता है, और अनुपालन न करने की स्थिति में संबंधित राज्य सरकार को बर्खास्त कर सकता है।
  • राष्ट्रपति और संसद के बीच – राष्ट्रपति किसी ऐसे विधेयक को अस्वीकार कर सकता है जो किसी राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत का उल्लंघन करता हो।
  • राज्यपाल और राज्य विधायिका के बीच – राज्यपाल किसी ऐसे विधेयक को अस्वीकार कर सकता है जो किसी राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत का उल्लंघन करता हो।
  • मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष – कुछ राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत प्राय: मौलिक अधिकारों के साथ टकराते हैं, जिससे परस्पर विरोधी हितों को संतुलित करने की चुनौतियां उत्पन्न होती हैं।

कुछ आलोचनाओं के बावजूद, निम्नलिखित कारणों से निर्देशक सिद्धांत महत्त्वपूर्ण और उपयोगी हैं:

  • निर्देशों का साधन: ये तत्त्व भारतीय संघ के भीतर सभी प्राधिकरणों के लिए “निर्देशों के उपकरण” या सामान्य सिफारिशों के रूप में कार्य करते हैं।
  • राज्य कार्यों के लिए रूपरेखा: ये तत्त्व राज्य द्वारा किये गए सभी कार्यों (विधायी और कार्यकारी) को निर्देशित करने वाले व्यापक ढांचे का गठन करते हैं।
  • न्यायपालिका की सहायता: ये तत्त्व न्यायपालिका को किसी कानून की संवैधानिक वैधता का निर्धारण करने में मदद करते हैं। इस प्रकार, ये न्यायालयों के लिए मार्गदर्शक प्रकाश के रूप में कार्य करते हैं।
  • संवैधानिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता: ये तत्त्व भारत के सभी नागरिकों के लिए – न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व – प्रस्तावना में परिकल्पित आदर्शों को विस्तृत करते हैं और उन्हें प्राप्त करने का लक्ष्य रखते हैं।
  • नीतियों में स्थिरता और निरंतरता: ये तत्त्व राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में घरेलू और विदेश नीतियों दोनों में स्थिरता और निरंतरता की सुविधा प्रदान करते हैं।
  • मौलिक अधिकारों का पूरक: ये तत्त्व सामाजिक और आर्थिक अधिकारों का प्रावधान करके भाग तीन के रिक्त स्थान को भरकर मौलिक अधिकारों के पूरक के रुप में कार्य करते हैं।
  • सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र को प्राप्त करने में सहायता: सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र स्थापित करने का प्रयास करके, ये सिद्धांत नागरिकों के लिए अपने मौलिक अधिकारों का पूर्ण और उचित बनाने के लिए एक अनुकूल वातावरण बनाते हैं।
  • सरकारी प्रदर्शन को मापने में सहायता: ये तत्त्व सरकार के प्रदर्शन को मापने के लिए मापदंड के रूप में कार्य करते हैं। इस प्रकार, ये नागरिकों के साथ-साथ विपक्ष को सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों की जांच करने में सहायता करते हैं।
  • जवाबदेही का अभाव: इनकी गैर-बाध्यकारी प्रकृति के कारण, आलोचकों का तर्क है कि DPSPs के अनुपालन को सुनिश्चित करने में जवाबदेही की कमी है, जिससे सरकारें अपने दायित्वों की उपेक्षा कर सकती हैं।
  • राजनीतिक लाभ: ऐसी आलोचना है कि सरकारें प्राय: DPSPs में उल्लिखित दीर्घकालिक उद्देश्यों पर अल्पकालिक राजनीतिक लाभ को प्राथमिकता देती हैं, जिससे उनका महत्त्व कम हो जाता है।
  • अपर्याप्त वित्तीय संसाधन: पर्याप्त वित्तीय संसाधनों की कमी सरकार को DPSPs के पूर्ण कार्यान्वयन से रोकने वाले प्रमुख कारणों में से एक है।
  • जनसंख्या विस्फोट: देश की लगातार बढ़ती जनसंख्या विभिन्न नए सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को जन्म दे रही है, जिन पर प्राथमिक ध्यान देने की आवश्यकता है। इस प्रकार, DPSPs का कार्यान्वयन पिछड़ता रहता है।
  • केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव: सहकारी संघवाद की अपर्याप्त भावना के परिणामस्वरूप केंद्र और राज्यों के बीच DPSPs के कार्यान्वयन के लिए समन्वय और सहयोग का अभाव होता है।

राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों (DPSP) को लागू करने के लिए कुछ स्थितियों में राज्य को मौलिक अधिकारों पर कुछ प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता हो सकती है। इसका अर्थ है कि राज्य को गैर-न्यायिक (DPSP) अधिकारों को लागू करने के लिए न्यायिक (मौलिक अधिकार) अधिकारों पर प्रतिबंध लगाना पड़ सकता है। संविधान लागू होने के बाद से ही इस विरोधाभास ने दोनों के मध्य गतिरोध की स्थिति को उत्पन्न किया है।

विगत वर्षों में मौलिक अधिकारों और DPSP के बीच संघर्ष के विकास को निम्न रूप से देखा जा सकता है:

  • चंपकम दोराईराजन बनाम मद्रास राज्य (1951): इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के बीच किसी भी विरोध की स्थिति में मौलिक अधिकार मान्य होंगे।
    • इसने घोषित किया कि राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत मौलिक अधिकारों के सहायक के रूप में कार्य करते हैं।
    • हालाँकि, यह माना गया कि संसद केवल संविधान संशोधन अधिनियमों को लागू करके मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है।
  • गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967): इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि मौलिक अधिकारों की पवित्र प्रकृति के होने के कारण संसद द्वारा संशोधित नहीं किये जा सकते।
    • इसका तात्पर्य था कि राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को लागू करने के लिए मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता।
  • 24 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1971): गोलकनाथ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के पश्चात् संसद ने 24वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1971 पारित किया।
    • इसमें घोषित किया गया कि संसद अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से किसी भी मौलिक अधिकार को वापस ले सकती है या कम कर सकती है।
  • 25वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1971): इस संशोधन ने एक नया अनुच्छेद 31-C जोड़ा जिसमें निम्नलिखित प्रावधान शामिल थे:
    • कोई भी कानून जो अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) में वर्णित राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को लागू करने का प्रयास करता है, वह अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 31 के तहत मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर अमान्य नहीं होगा।
    • ऐसी नीति को प्रभावी करने की घोषणा वाले किसी भी कानून पर किसी भी न्यायालय में इस आधार पर सवाल नहीं उठाया जाएगा कि यह ऐसी नीति को प्रभावी नहीं बनाता है।
  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 31C के दूसरे प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर दिया। हालाँकि, इसने अनुच्छेद 31C के पहले प्रावधान को बनाए रखा।
  • 42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1976): इसने अनुच्छेद 31C के पहले प्रावधान की परिधि को बढ़ाकर इसमें केवल अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) को ही नहीं, बल्कि किसी भी राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को लागू करने वाले किसी भी कानून को शामिल कर लिया।
    • इस प्रकार, इस संशोधन ने अनुच्छेद 14, 19 और 31 के तहत मौलिक अधिकारों पर सभी DPSPs को सर्वोच्चता प्रदान करने का प्रयास किया गया।
  • मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): इस मामले में, 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 31C के पहले प्रावधान की परिधि को बढ़ाने को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर दिया था।
    • इस प्रकार, राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को एक बार फिर मौलिक अधिकारों के अधीन कर दिया गया।
    • हालाँकि, अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) में वर्णित राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को अनुच्छेद 14 और 19 द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों पर सर्वोच्चता के रूप में स्वीकार किया गया था।
  • वर्तमान स्थिति: राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों (DPSP) और मौलिक अधिकारों (FR) के संबंध में वर्तमान स्थिति निम्नलिखित है:
    • मौलिक अधिकारों को राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों पर सर्वोच्चता प्राप्त है।
    • हालाँकि, अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) में वर्णित राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को अनुच्छेद 14 और 19 के तहत मौलिक अधिकारों पर सर्वोच्चता प्राप्त है।
    • संसद किसी राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत को लागू करने के लिए मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है, लेकिन यह संशोधन संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित ना करें।
मौलिक अधिकारराज्य के नीति निदेशक तत्त्व
ये प्रकृति में नकारात्मक होते हैं क्योंकि ये राज्य को कुछ विशेष कार्य करने से रोकते हैं।ये प्रकृति में सकारात्मक होते हैं क्योंकि ये राज्य से कुछ विशेष कार्य करने की उम्मीद रखते हैं।
ये न्यायसंगत प्रकृति के होते हैं।ये न्यायप्रवर्तनीय नहीं होते।
इनका उद्देश्य देश में राजनीतिक लोकतंत्र को स्थापित करना है।इनका लक्ष्य देश में सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र को स्थापित करना है।
इन पर कानूनी प्रतिबंध होता हैं।इन पर नैतिक और राजनीतिक प्रतिबंध होता हैं।
वे स्वभाव से व्यक्तिवादी हैं क्योंकि वे व्यक्ति के कल्याण को बढ़ावा देते हैं।वे स्वभाव से समाजवादी हैं क्योंकि वे समुदाय के कल्याण को बढ़ावा देते हैं।
ये स्वत: रूप से लागू होते हैं और इसलिए इन्हें लागू करने के लिए किसी कानून की आवश्यकता नहीं होती है।ये स्वत: रूप से लागू नहीं होते हैं, और इन्हें लागू करने के लिए कानून की आवश्यकता होती है।
यदि कोई मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है तो न्यायालय कानून को असंवैधानिक और अमान्य घोषित कर सकती हैं।यदि कोई राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों का उल्लंघन करता है तो अदालतें कानून को असंवैधानिक और अमान्य घोषित नहीं कर सकती हैं। हालाँकि, वे किसी कानून की वैधता को इस आधार पर बनाए रख सकते हैं कि इसे एक निर्देश को प्रभावी करने के लिए अधिनियमित किया गया था।

निष्कर्षत: राज्य के नीति निदेशक तत्त्व (DPSPs) का लक्ष्य संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों को साकार करना है। इस प्रकार, ये तत्त्व एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को मूर्त रूप देते हैं। यही कारण है कि डॉ. अम्बेडकर ने (DPSPs) को भारतीय संविधान की “नवीन विशेषताएँ ” बताया है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here