मूल संरचना के सिद्धांत: अर्थ, विकास, विशेषताएँ, महत्त्व और आलोचना

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मूल संरचना के सिद्धांत
मूल संरचना के सिद्धांत

मूल संरचना के सिद्धांत, भारतीय न्यायिक नवाचार की एक पहचान के रूप में, यह सुनिश्चित करता है कि भारत के संविधान के मूलभूत सिद्धांत निरंतर बने रहें, और इसके साथ ही संशोधनों के माध्यम से संविधान का तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार विकास भी होता रहें। परिवर्तन और निरंतरता के बीच जटिल परस्पर क्रियाओं के माध्यम से यह सिद्धांत सुनिश्चित करता है कि संविधान की आत्मा अछूती रहे। NEXT IAS का यह लेख मूल संरचना के सिद्धांत, इसके विकास, विशेषताओं, तत्त्वों, महत्त्व और आलोचनाओं को समझाने का प्रयास करता है।

  • भारतीय संविधान में मूल संरचना के सिद्धांत से तात्पर्य, संविधान की कुछ ऐसी मूलभूत विशेषताओं से है, जोकि अपरिवर्तनीय हैं और इन्हें संसद द्वारा संशोधित या परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।
  • इस सिद्धांत के अनुसार, कोई भी संशोधन जो इन मूल विशेषताओं को बदलने या समाप्त करने का प्रयास करता है, उसे असंवैधानिक और शून्य माना जाता है। इस प्रकार, यह सिद्धांत संविधान में मनमाने या आमूलचूल परिवर्तनों के विरुद्ध सुरक्षा के रूप में कार्य करता है, जिससे इसकी स्थिरता, निरंतरता और मूल संवैधानिक मूल्यों का पालन सुनिश्चित होता है।

भारतीय संविधान में मूल संरचना के सिद्धांत स्पष्ट रूप से वर्णित नहीं है। यह वास्तव में एक न्यायिक सिद्धांत है, जो संसद की संशोधन शक्ति से संबंधित मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णयों के माध्यम से विकसित हुआ है।

अनुच्छेद 368 के तहत संसद द्वारा संविधान में संशोधन करने की शक्ति के दायरे को लेकर बहस 1951 में ही शुरू हो गई थी। इस मुद्दे ने विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराव की शुरूआत की, जो अंततः संविधान के मूल संरचना के सिद्धांत के विकास में परिणत हुई।

पिछले कुछ वर्षों में इस सिद्धांत के विकास को इस प्रकार देखा जा सकता है:

  • शंकरी प्रसाद का मामला, 1951
    • इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि अनुच्छेद 13 में ‘कानून’ शब्द में केवल सामान्य कानून शामिल हैं, न कि संविधान संशोधन अधिनियम।
      • इस प्रकार, संसद संविधान संशोधन अधिनियम बनाकर किसी भी मौलिक अधिकार को समाप्त या कम कर सकती है।
  • गोलक नाथ का मामला, 1967
    • इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पहले के रुख को पलट दिया और माना कि अनुच्छेद 13 में ‘कानून’ शब्द में संविधान संशोधन अधिनियम भी शामिल हैं।
    • इसलिए, संसद संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से मौलिक अधिकार को समाप्त या कम नहीं कर सकती है।
  • 24वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1971
    • गोलक नाथ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के जवाब में संसद ने 24वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1971 पारित किया, जिसने अनुच्छेद 13 और अनुच्छेद 368 में संशोधन किया।
    • इसने घोषणा की कि संसद अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से किसी भी मौलिक अधिकार को समाप्त या कम कर सकती है और ऐसे अधिनियम को अनुच्छेद 13 के अर्थ के तहत कानून नहीं माना जाएगा।
  • केशवानंद भारती का मामला, 19733
    • इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने 24वें संविधान संशोधन अधिनियम की वैधता को बनाए रखा और कहा कि संसद किसी भी मौलिक अधिकार को समाप्त या कम कर सकती है।
    • हालाँकि, इसने संविधान के मूल संरचना का एक नया सिद्धांत निर्धारित किया, जिसके अनुसार, अनुच्छेद 368 के तहत संसद की संवेधानिक शक्ति इसे संविधान के ‘मूल ढांचे’ को बदलने में सक्षम नहीं बनाती है।
    • इस प्रकार, इस निर्णय की घोषणा के बाद कुल मिलाकर स्थिति यह है कि संसद किसी मौलिक अधिकार को समाप्त या कम नहीं कर सकती है जो संविधान के ‘मूल ढांचे’ का हिस्सा है।
  • 42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1976
    • न्यायपालिका द्वारा प्रतिपादित मूल संरचना के नए सिद्धांत के जवाब में, संसद ने 1976 में 42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया।
    • इस अधिनियम ने अनुच्छेद 368 में संशोधन किया और यह घोषित किया कि संसद की संविधान संशोधन शक्ति पर कोई सीमा नहीं है।
    • इसके अनुसार, मौलिक अधिकारों के उल्लंघन सहित किसी भी आधार पर किसी भी संशोधन को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
  • मिनर्वा मिल्स केस, 1980
    • इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के उपरोक्त प्रावधान को इस आधार पर अमान्य कर दिया कि इसमें न्यायिक समीक्षा को शामिल नहीं किया गया है, जो संविधान की ‘मूल विशेषता‘ है।
  • वामन राव का मामला (Waman Rao Case, 1981)
    • इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने मूल संरचना के सिद्धांत का पालन किया और स्पष्ट किया कि यह केशवानंद भारती मामले के निर्णय की तिथि अर्थात् 24 अप्रैल, 1973 के बाद अधिनियमित सभी संविधान संशोधन अधिनियमों पर लागू होगा।
    • वर्तमान स्थिति
      • इस प्रकार, वर्तमान स्थिति यह है कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन कर सकती है, जिसमें मौलिक अधिकार भी शामिल हैं, लेकिन संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित किए बिना।

सर्वोच्च न्यायालय ने अभी तक यह परिभाषित नहीं किया है कि “मूल संरचना” क्या है। अभी तक विभिन्न निर्णयों के माध्यम से मूल संरचना के तत्त्वों को विकसित किया जा रहा है। भारतीय संविधान के मूल संरचना के कुछ प्रमुख तत्त्व इस प्रकार हैं:

  • संविधान की सर्वोच्चता
  • भारतीय राज्य का स्वतंत्र, लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक स्वरूप
  • संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र
  • विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का पृथक्करण
  • संघीय ढांचा
  • राष्ट्र की एकता और अखंडता
  • कल्याणकारी राज्य (सामाजिक-आर्थिक न्याय)
  • न्यायिक समीक्षा
  • व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा
  • संसदीय प्रणाली
  • कानून का शासन
  • मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशों के बीच सामंजस्य और संतुलन
  • समानता का सिद्धांत
  • स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता
  • संविधान में संशोधन करने की संसद की सीमित शक्ति
  • न्याय तक प्रभावी पहुंच
  • मौलिक अधिकारों के अंतर्निहित सिद्धांत (या सार)
  • अनुच्छेद 32, 136, 141 और 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियां
  • अनुच्छेद 226 और 227 के तहत उच्च न्यायालयों की शक्तियां

संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत भारत के संवैधानिक ढांचे में सर्वोच्च महत्त्व रखता है। इसके महत्त्व को इस प्रकार समझा जा सकता है:

  • संविधान की अखंडता बनाए रखना (Preserves Constitutional Integrity): यह सिद्धांत संविधान के लचीलेपन की आवश्यकता और संविधान की मूलभूत अखंडता एवं पहचान बनाए रखने की अनिवार्यता के बीच संतुलन स्थापित करता है। यह संवैधानिक व्यवस्था की अखंडता और स्थिरता बनाए रखने में मदद करता है।
  • संविधान की सर्वोच्चता बनाए रखना (Maintains Supremacy of the Constitution): यह सिद्धांत इस सिद्धांत को बनाए रखता है कि संविधान सर्वोच्च है और यह देश का सर्वोच्च कानून है।
  • संवैधानिक नैतिकता को बनाए रखना (Upholds Constitutional Morality): यह संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांतों को बनाए रखता है और सुनिश्चित करता है कि संविधान संशोधन न्याय, समानता और निष्पक्षता के व्यापक मूल्यों का पालन करते हैं।
  • अधिनायकवाद को रोकना (Prevents Authoritarianism): यह सिद्धांत लोकतांत्रिक संस्थाओं को खत्म करने या संवैधानिक मानदंडों को कमजोर करने की अधिनायकवादी प्रवृत्तियों के खिलाफ एक सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करता है।
  • स्थिरता और निरंतरता सुनिश्चित करना (Ensures Stability and Consistency): यह सिद्धांत संविधान में निरंतर और आमूल परिवर्तन को रोकता है जो शासन को बाधित कर सकता है, जिससे कानूनी व्यवस्था की स्थिरता और निरंतरता भी बाधित होती है।
  • लोकतंत्र की रक्षा करना (Protects Democracy): संविधान के ‘मूलभूत स्वरूप’ के रूप में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करके, यह सुनिश्चित करता है कि भारत एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य बना रहे।
  • मौलिक अधिकारों की रक्षा करना (Protects Fundamental Rights): मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखकर, यह सिद्धांत व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करता है और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देता है।
  • न्यायिक समीक्षा को बढ़ावा देना (Promotes Judicial Review): यह सिद्धांत न्यायपालिका को संविधान संशोधनों की समीक्षा करने का अधिकार देता है, साथ ही संविधान के संरक्षक के रूप में अपनी भूमिका को बढ़ाता है और कानून के शासन को बढ़ावा देता है।

जहाँ भारतीय संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत ने संविधान की अखंडता एवं मूलभूत सिद्धांतों की रक्षा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, वहीं निम्नलिखित आधारों पर इनकी आलोचना भी हुई है:

  • संवैधानिक आधारों का अभाव(Lack of Constitutional Basis): एक आम आलोचना यह है कि यह सिद्धांत संविधान के किसी स्पष्ट प्रावधान द्वारा समर्थित नहीं है।
  • स्पष्टता का अभाव (Lack of Clarity): इस सिद्धांत में इसके तत्त्वों के बारे में सटीक परिभाषा और स्पष्टता का अभाव है। यह अस्पष्टता न्यायिक विवेक और व्याख्या का द्वार खोल देती है, जिससे इसके अनुप्रयोग में अनिश्चितता और असंगति पैदा होती है।
  • अंतर्निहित विषयपरकता (Subjectivity): मूल संरचना क्या है इसका निर्धारण स्वाभाविक रूप से व्यक्तिपरक होता है और अलग-अलग न्यायाधीशों की व्याख्याओं के आधार पर भिन्न होता है, जिससे न्यायपालिका के विभिन्न पीठों द्वारा परस्पर विरोधाभासी निर्णय हो सकते हैं।
  • न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism): आलोचकों का तर्क है कि मूल संरचना सिद्धांत न्यायपालिका में अत्यधिक शक्ति निहित करता है, जिससे न्यायाधीशों को न्यायिक सक्रियता में शामिल होने और संविधान संशोधनों के बारे में व्यक्तिपरक निर्धारण हो सकता है। उनका मानना है कि संविधान की व्याख्या करना और यह तय करना कि कौन से प्रावधान मूल संरचना का हिस्सा हैं, यह विधायिका का काम है, न्यायपालिका का नहीं।
  • शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन (Violation of Separation of Powers): न्यायपालिका को संसद की विधायी और घटक शक्ति में हस्तक्षेप करने की अनुमति देकर, यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।
  • अलोकतांत्रिक प्रकृति (Undemocratic Nature): कुछ मामलों में, यह सिद्धांत अलोकतांत्रिक प्रथाओं को जन्म देता है क्योंकि यह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा लिए गए फैसलों को अनिर्वाचित न्यायाधीशों को पलटने की अनुमति देता है। ।
  • संवैधानिक विकास को बाधित करना (Stifling Constitutional Evolution): विधायिका की संविधान संशोधन शक्ति पर कठोर प्रतिबंध लगाकर, यह सिद्धांत बदलती सामाजिक जरूरतों के अनुसार नई चुनौतियों और परिस्थितियों के जवाब में संविधान के विकास को बाधित कर सकता है।

संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत संवैधानिक न्यायशास्त्र की आधारशिला है, जो संविधान में निहित मौलिक सिद्धांतों और मूल्यों के संरक्षण के लिए एक रूपरेखा प्रदान करता है। यह भारतीय न्यायपालिका की दूरदृष्टिपूर्ण सोच का प्रमाण है जो संविधान के मूलभूत सिद्धांतों को मनमाने परिवर्तनों से सुरक्षित रखता है।

भारतीय संविधान का मूल ढांचा क्या है?

भारतीय संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत भारतीय न्यायपालिका द्वारा स्थापित उस सिद्धांत को संदर्भित करता है, जिसके अनुसार संविधान के कुछ मूल सिद्धांत और विशेषताएं अनुल्लंघनीय हैं और इन्हें संसद द्वारा संशोधित या परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।

क्या भारतीय संविधान के मूल ढांचे में संशोधन किया जा सकता है?

संसद संविधान के प्रावधानों में संशोधन कर सकती है लेकिन वह इसके ‘मूल ढांचे’ को नष्ट नहीं कर सकती। इस प्रकार, ‘मूल ढांचे’ में संशोधन नहीं किया जा सकता।

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