जल संरक्षक: मरुस्थलीकरण के विरुद्ध स्थानीय संघर्ष

पाठ्यक्रम: GS3/ पर्यावरण

संदर्भ

  • स्थानीय किसानों और स्वयंसेवकों का एक समूह, जिसे जल संरक्षक (Water Guardians) कहा जाता है, हंगरी के अर्ध-शुष्क होमोकहात्साग (Homokhátság) क्षेत्र में बुनियादी स्तर पर जल पुनर्स्थापन का प्रयास कर रहा है।

‘जल संरक्षक’ पहल

  • मध्य यूरोप के कुछ भाग, विशेष रूप से हंगरी का ग्रेट हंगेरियन प्लेन (Homokhátság), तीव्रता से मरुस्थलीकरण का सामना कर रहे हैं। इसका कारण है जलवायु परिवर्तन, भूजल स्तर में गिरावट और अस्थिर भूमि एवं जल प्रबंधन।
  • इस पहल का उद्देश्य जल को स्थानीय स्तर पर रोकना और पुनर्वितरित करना है, बजाय इसके कि उसे अनुपयोगी रूप से बहने दिया जाए।

मरुस्थलीकरण क्या है?

  • मरुस्थलीकरण शुष्क, अर्ध-शुष्क और शुष्क उप-आर्द्र क्षेत्रों में भूमि के क्षरण को संदर्भित करता है, जो जलवायु परिवर्तन एवं मानव गतिविधियों के कारण होता है।
  • यह मृदा की उत्पादकता हानि और वनस्पति आवरण के पतले होने की एक क्रमिक प्रक्रिया है, जो मानव गतिविधियों एवं लंबे समय तक सूखा या बाढ़ जैसी जलवायु विविधताओं के कारण होती है।
  • मरुस्थलीकरण एक वैश्विक समस्या है, जो सीधे तौर पर 250 मिलियन लोगों और पृथ्वी की भूमि सतह के एक-तिहाई हिस्से (लगभग 4 अरब हेक्टेयर) को प्रभावित करती है।

मरुस्थलीकरण बढ़ने के कारण

  • जलवायु परिवर्तन: वैश्विक तापमान में वृद्धि वाष्पीकरण को तीव्र करती है, जिससे मृदा की नमी कम होती है और सतही परतें सूख जाती हैं।
    • अनियमित वर्षा पैटर्न, छोटे मानसून काल और लंबे सूखे वनस्पति आवरण एवं मृदा के पुनर्जनन को कमजोर करते हैं।
  • भूजल स्तर में गिरावट: कृषि और शहरी उपयोग के लिए अत्यधिक भूजल निकासी से जल स्तर गिरता है। नदियों का चैनलीकरण एवं आर्द्रभूमियों की निकासी प्राकृतिक बाढ़ और पुनर्भरण चक्र को बाधित करती है।
  • अस्थिर कृषि पद्धतियाँ: अत्यधिक चराई सुरक्षात्मक वनस्पति आवरण को हटा देती है, जिससे मृदा वायु के कटाव के लिए उजागर हो जाती है।
    • एकल फसल (Monocropping) और रासायनिक इनपुट का अत्यधिक उपयोग मृदा की संरचना एवं उर्वरता को खराब करता है।
  • वनों की कटाई: कृषि, बुनियादी ढाँचे या खनन के लिए वनों की सफाई मृदा को बाँधने वाली जड़ प्रणालियों को कम करती है।
    • पेड़ों के आवरण की हानि सतही बहाव को बढ़ाती है और भूमि क्षरण को तीव्रता करती है।

मरुस्थलीकरण के प्रभाव

  • पर्यावरणीय प्रभाव: घासभूमि, आर्द्रभूमि और वनों के क्षरण से जैव विविधता में गिरावट। इससे मृदा का कटाव, धूल भरी आँधियाँ और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं में कमी होती है।
  • आर्थिक प्रभाव: कृषि उत्पादन में कमी से किसानों की आय और ग्रामीण आजीविका प्रभावित होती है। सिंचाई, भूमि पुनर्वास एवं पेयजल आपूर्ति की लागत बढ़ती है।
  • सामाजिक प्रभाव: खाद्य असुरक्षा और पोषण संबंधी तनाव, विशेषकर सीमांत किसानों में।
  • जलवायु परिवर्तन: वनस्पति की हानि कार्बन अवशोषण को कम करती है, जिससे जलवायु परिवर्तन तीव्र होता है। सूखी मृदा हीटवेव को तीव्र करती है, जिससे गर्मी और क्षरण का दुष्चक्र बनता है।

मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए उठाए गए कदम

  • UNCCD भूमि क्षरण तटस्थता (LDN) को बढ़ावा देता है, जिसका उद्देश्य 2030 तक भूमि क्षरण और पुनर्स्थापन के बीच संतुलन बनाना है।
  • मरुस्थलीकरण से लड़ने के लिए संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UNCCD):
    • UNCCD की स्थापना 1994 में भूमि की रक्षा और पुनर्स्थापन के लिए की गई थी, ताकि एक सुरक्षित, न्यायसंगत एवं अधिक सतत भविष्य सुनिश्चित किया जा सके।
    • यह मरुस्थलीकरण और सूखे के प्रभावों से निपटने के लिए स्थापित एकमात्र कानूनी रूप से बाध्यकारी ढाँचा है।
    • इस अभिसमय के 197 पक्षकार हैं, जिनमें 196 देश और यूरोपीय संघ शामिल हैं।
  • भारत द्वारा उठाए गए कदम:
    • राष्ट्रीय वनीकरण और पारिस्थितिकी विकास बोर्ड (NAEB): नष्टप्राय वनों और आसपास के क्षेत्रों के पारिस्थितिकीय पुनर्स्थापन के लिए जनभागीदारी के माध्यम से राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम (NAP) लागू कर रहा है।
    • अरावली ग्रीन वॉल पहल: इस पहल का उद्देश्य अरावली पर्वत श्रृंखला के चारों ओर पाँच किलोमीटर के बफर क्षेत्र में हरित आवरण का विस्तार करना है। यह गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के 29 जिलों को कवर करता है।
    • मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना, 2023: यह योजना 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर अपक्षयग्रस्त भूमि के पुनर्स्थापन की देश की प्रतिबद्धताओं को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई है।

Source: TH


 

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