न्यायाधिकरणों के लिए सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र के बीच मतभेद

पाठ्यक्रम: GS2/ राजव्यवस्था एवं शासन

संदर्भ

  •  भारत के सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार के बीच ट्रिब्यूनल्स रिफॉर्म्स एक्ट, 2021 को लेकर प्रशासन एवं सुधार पर चल रहा विवाद बार-बार चुनौती दिया गया है, क्योंकि इस पर न्यायिक स्वतंत्रता को कमजोर करने का आरोप है।

भारत में ट्रिब्यूनल प्रणाली के बारे में

  • भारत में न्यायाधिकरण अर्ध-न्यायिक संस्थाएँ हैं जिन्हें कराधान, पर्यावरण, कॉरपोरेट कानून और प्रशासनिक मामलों जैसे विशिष्ट क्षेत्रों में विवादों के निपटारे के लिए स्थापित किया गया है।
  • इन्हें विशेष विशेषज्ञता प्रदान करने, तीव्र समाधान देने और नियमित न्यायालयों पर बोझ कम करने के लिए बनाया गया है।
  • ये सख्त प्रक्रिया संबंधी कानूनों से बंधे नहीं होते और पारंपरिक न्यायालयों की तुलना में अधिक कुशलता से न्याय देने की अपेक्षा की जाती है।
    • हालांकि, इन्हें प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि न्यायाधिकरण को कार्यपालिका से उतनी ही स्वतंत्रता होनी चाहिए जितनी न्यायपालिका को होती है।

भारत में न्यायाधिकरण प्रणाली का विकास 

  • 42वाँ संशोधन, 1976: भारतीय संविधान में अनुच्छेद 323A और 323B जोड़े गए।
    • अनुच्छेद 323A: संसद को प्रशासनिक न्यायाधिकरण(केंद्रीय और राज्य स्तर पर) बनाने का अधिकार दिया गया ताकि सरकारी कर्मचारियों की भर्ती एवं सेवा शर्तों से संबंधित मामलों का निपटारा किया जा सके।
    • अनुच्छेद 323B: इसमें कुछ विषय (जैसे कराधान और भूमि सुधार) निर्दिष्ट किए गए जिन पर संसद या राज्य विधानसभाएँ कानून बनाकर न्यायाधिकरण स्थापित कर सकती हैं।
  • 2010 में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 323B के अंतर्गत विषय विशिष्ट नहीं हैं और विधानसभाएँ संविधान की सातवीं अनुसूची में निर्दिष्ट किसी भी विषय पर न्यायाधिकरण बना सकती हैं।
  • वर्तमान में न्यायाधिकरण उच्च न्यायालयों के विकल्प और अधीनस्थ दोनों रूपों में बनाए गए हैं।
    • उच्च न्यायालयों के विकल्प: जैसे सिक्योरिटीज अपीलीय ट्रिब्यूनल के निर्णयों से सीधे सर्वोच्च न्यायालय में अपील होती है।
    • उच्च न्यायालयों के अधीनस्थ: जैसे कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अंतर्गत अपीलीय बोर्ड के निर्णय संबंधित उच्च न्यायालय में सुने जाते हैं।

न्यायाधिकरण के प्रकार 

  • भारत में दो व्यापक श्रेणियाँ हैं:
    • प्रशासनिक न्यायाधिकरण: जैसे केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण(CAT), जो सरकारी कर्मचारियों के सेवा-संबंधी विवादों का निपटारा करता है।
    • क्षेत्र-विशिष्ट न्यायाधिकरण: जैसे
      • आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण(ITAT)
      • राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण(NGT)
      • सिक्योरिटीज अपीलीय न्यायाधिकरण(SAT)
      • सशस्त्र बल न्यायाधिकरण(AFT)
      • दूरसंचार विवाद निपटान और अपीलीय न्यायाधिकरण(TDSAT)
भारत में न्यायाधिकरण प्रणाली के प्रमुख विकास 
– 1941: आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण भारत का प्रथम न्यायाधिकरण।
1969: प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) ने राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सिविल सेवा न्यायाधिकरण स्थापित करने की सिफारिश की।
1974: छठे विधि आयोग ने उच्च न्यायालयों में मामलों के निपटारे हेतु एक अलग उच्च-शक्ति न्यायाधिकरण और आयोग स्थापित करने की सिफारिश की।
1976: स्वरन सिंह समिति ने सिफारिश की:
– राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर प्रशासनिक न्यायाधिकरण;
– श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरण से मामलों के लिए अखिल भारतीय अपीलीय न्यायाधिकरण;
– विभिन्न क्षेत्रों (राजस्व, भूमि सुधार, आवश्यक वस्तुएँ) से संबंधित मामलों के लिए न्यायाधिकरण।
2017: वित्त अधिनियम, 2017 ने कार्यात्मक समानता के आधार पर न्यायाधिकरण का विलय कर पुनर्गठन किया।
2021: ट्रिब्यूनल्स रिफॉर्म्स (तर्कसंगतीकरण और सेवा शर्तें) विधेयक, 2021 पारित हुआ और ट्रिब्यूनल्स रिफॉर्म्स एक्ट, 2021 बना।
कानूनी ढाँचा 
ट्रिब्यूनल्स रिफॉर्म्स एक्ट, 2021 ने कई ट्रिब्यूनल्स को एकीकृत और तर्कसंगत बनाया। प्रमुख विशेषताएँ:
– सदस्यों की नियुक्ति के लिए समान शर्तें;
– निश्चित कार्यकाल और आयु सीमा;
– नियुक्तियों के लिए केंद्रीकृत चयन समिति।

भारत में न्यायाधिकरण पर विवाद 

  • संवैधानिक वैधता:मद्रास बार एसोसिएशन (MBA) ने 2021 में इस अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी।
    • याचिकाकर्ताओं ने कहा कि संसद ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पहले ही रद्द किए गए प्रावधानों को पुनः लागू किया है।
    • यह न्यायिक निर्णय का ‘विधायी अधिरोहण’ है, जो शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है और न्यायिक स्वतंत्रता को खतरे में डालता है।
      • चुनौती मुख्यतः चार-वर्षीय कार्यकाल और नियुक्ति के लिए न्यूनतम 50 वर्ष आयु सीमा पर केंद्रित थी।
  • वित्त अधिनियम, 2017 और प्रारंभिक चुनौती: इसने केंद्र को व्यापक अधिकार दिए, जिन्हें 2019 में न्यायपालिका ने रद्द कर दिया।
  • नियम और न्यायिक सिफारिशें (2020): सरकार ने नए नियम जारी किए, जिन्हें फिर चुनौती दी गई।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतंत्रता बनाए रखने हेतु पाँच-वर्षीय कार्यकाल की सिफारिश की।
  • अध्यादेश और न्यायिक अस्वीकृति (2021): केंद्र ने अध्यादेश जारी कर चार-वर्षीय कार्यकाल और 50 वर्ष आयु सीमा पुनः लागू की, जिन्हें न्यायालय ने ‘मनमाना एवं असंवैधानिक’ बताया।
  • पुनः अधिनियमन: संसद ने समान प्रावधानों के साथ अधिनियम पारित किया, जिसे न्यायिक अधिकार को चुनौती माना गया।

अकार्यशील न्यायाधिकरण और रिक्तियाँ 

  • विवाद ने देशभर में न्यायाधिकरण की कार्यक्षमता को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।
    • राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण(NCLT): 32 में से 24 पद रिक्त।
    • सशस्त्र बल न्यायाधिकरण: 34 में से 24 पद रिक्त।
    • आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण: 63 में से 18 न्यायिक पद रिक्त।
    • रेलवे क्लेम्स न्यायाधिकरण: 20 में से 16 न्यायिक पद रिक्त।
    • औद्योगिक और श्रम न्यायाधिकरण: 22 में से केवल 13 अध्यक्ष पदस्थ।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार कहा है कि ऐसी देरी ने कई न्यायाधिकरण को ‘लगभग निष्क्रिय’ बना दिया है।

मुख्य तर्क 

  • याचिकाकर्ताओं का पक्ष:
    • चार-वर्षीय कार्यकाल स्वतंत्रता को कमजोर करता है।
    • 50 वर्ष आयु सीमा सक्षम युवा पेशेवरों को बाहर करती है।
    • अधिनियम पूर्व न्यायिक निर्णयों को निष्फल करता है।
  • सरकार का बचाव:
    • यह संसद का नीतिगत निर्णय है।
    • आयु सीमा पेशेवर परिपक्वता सुनिश्चित करती है।
    • चार-वर्षीय कार्यकाल पर्याप्त स्थिरता देता है।
    • न्यायपालिका पर विधायी अधिकारों में हस्तक्षेप का आरोप लगाया।

भारत में न्यायाधिकरण प्रणाली को सुदृढ़ करना

  • न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करना: नियुक्ति प्रक्रियाएँ पारदर्शी और कार्यपालिका के हस्तक्षेप से मुक्त होनी चाहिए।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने एक स्वतंत्र चयन समिति की आवश्यकता पर बल दिया है।
  • रिक्तियों को शीघ्र भरना: भर्ती प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करके और नौकरशाही संबंधी देरी को कम करके प्रमुख न्यायाधिकरणों की कार्यक्षमता पुनर्स्थापित की जा सकती है।
  • बुनियादी ढाँचे में सुधार: डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म, भौतिक सुविधाओं और क्षेत्रीय पीठों में निवेश करके न्यायाधिकरणों को अधिक सुलभ बनाया जा सकता है।
  • विधायी स्पष्टता: न्यायाधिकरणों को नियंत्रित करने वाले कानूनों को बार-बार मुकदमेबाजी से बचने के लिए संवैधानिक सिद्धांतों और न्यायिक उदाहरण के अनुरूप होना चाहिए।

निष्कर्ष

  • न्यायाधिकरण सुधार अधिनियम, 2021 पर टकराव न्यायिक स्वतंत्रता और कार्यपालिका नियंत्रण के बीच एक गहरे संवैधानिक संघर्ष का प्रतीक है।
  • न्यायपालिका इस अधिनियम को अर्ध-न्यायिक निकायों की स्वायत्तता के लिए खतरा मानती है, जबकि सरकार अपने नीतिगत विशेषाधिकारों का बचाव करती है।
  • जैसे-जैसे सर्वोच्च न्यायालय अपना निर्णय सुनाने की तैयारी कर रहा है, इसका परिणाम कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच भविष्य के शक्ति संतुलन एवं भारत की न्याय प्रणाली के केंद्र में स्थित न्यायाधिकरणों के कामकाज को आकार देने की संभावना है।
दैनिक मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न
[प्रश्न] भारत में न्यायाधिकरणों के प्रशासन में आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिए। इन मुद्दों के समाधान में न्यायाधिकरण सुधार अधिनियम, 2021 की प्रभावशीलता का मूल्यांकन कीजिए।

Source: IE

 

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