राष्ट्रपति और राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति

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राष्ट्रपति और राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति
राष्ट्रपति और राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति

अध्यादेश जारी करने की शक्ति भारत के संविधान की एक अनोखी विशेषता है। यह शक्ति जहाँ एक ओर दक्षता और आवश्यकता के लिए एक उपकरण के रूप में कार्य करती है, वहीं दूसरी ओर यह व्यावहारिक शासन और संभावित दुरुपयोग के बीच संतुलन बनाती है। NEXT IAS के इस लेख का उद्देश्य अध्यादेश के अर्थ, संबंधित संवैधानिक प्रावधानों, उनके महत्त्व और संबंधित मुद्दों को स्पष्ट करना है।

  • शासन और कानून के संदर्भ में, अध्यादेश एक ऐसी शक्ति है जिसका प्रयोग किसी अप्रत्याशित अथवा अविलंबनीय परिस्थिति से निपटने के लिए किया जाता हैं।
  • अध्यादेश के प्रभाव सामान्यतः विधायी निकायों द्वारा अधिनियमित अधिनियम के समान होता है।
  • अधिनियम और अध्यादेश के बीच केवल इतना ही अंतर है कि अधिनियम स्थायी होता है, जबकि अध्यादेश अस्थायी प्रकृति का होता है।

भारत का संविधान में भारत के राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपालों द्वारा अध्यादेशों को जारी करने की शक्ति प्रदान की गई है। इसके संबंध में संवैधानिक प्रावधान निम्नलिखित हैं:

  • अनुच्छेद 123: जब संसद के दोनों सदन अथवा एक सदन सत्र में ना हों, तब राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश जारी किया जा सकता है।
  • अनुच्छेद 213: भारतीय संविधान राज्यपाल को ,जब राज्य विधानमंडल या विधानसभा सत्र में ना हों, अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान करता है।

राष्ट्रपति और राज्यपालों की अध्यादेश जारी करने की शक्ति के बारे में अगले भागों में विस्तार से चर्चा की गई है।

  • संविधान का अनुच्छेद 123 राष्ट्रपति को संसद के दोनों सदन अथवा एक सदन सत्र में ना होने की स्थिति में अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान करता है।
  • संविधान राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति पर निम्नलिखित चार सीमाएँ आरोपित करता है:
    • राष्ट्रपति अध्यादेश तभी जारी कर सकते है जब संसद के दोनों सदन या उसमें से कोई एक सदन सत्र में न हो।
      • दोनों सदनों के सत्र में रहते हुए राष्ट्रपति द्वारा जारी किया गया अध्यादेश शून्य और निरर्थक है। अतः राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति विधायिका के समानांतर शक्ति नहीं है।
    • राष्ट्रपति अध्यादेश तभी जारी कर सकते है जब वह इस बात से संतुष्ट हो जाए कि ऐसी परिस्थितियाँ मौजूद हैं जिनके कारण उन्हें तत्काल कार्रवाई करना आवश्यक हो गया है।
    • राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति पर कुछ निम्नलिखित सीमाएँ है:-
      • संसद की विधायी शक्तियों के संबंध में सभी मामलों के लिए व्यापक है।
      • केवल उन्हीं विषयों पर अध्यादेश जारी किया जा सकता है जिन पर संसद को कानून बनाने का अधिकार है।
    • अध्यादेश संसद के अधिनियम के समान संवैधानिक सीमा के अधीन है। इसलिए, कोई अध्यादेश किसी भी मौलिक अधिकार का हनन या कम नहीं कर सकता।
    • अध्यादेश की अवधि के संबंध में:
      • संसद के दोनों सदन या कोई एक सदन के सत्र ना की स्थिति के दौरान राष्ट्रपति द्वारा घोषित प्रत्येक अध्यादेश संसद की पुनः बैठक होने पर दोनों सदनों के समक्ष रखा जाना चाहिए।
  • संसद के पास इस प्रकार लाए गए अध्यादेश के संबंध में निम्नलिखित तीन विकल्प हैं:
    • अध्यादेश को स्वीकृति : यदि संसद के दोनों सदन द्वारा अध्यादेश को स्वीकार कर लिया जाता है, तो यह तुरंत एक कानून बन जाता है।
    • अध्यादेश को अस्वीकार : यदि संसद के दोनों सदन अध्यादेश को अस्वीकार करने का प्रस्ताव पारित करते हैं, तो यह तुरंत ही समाप्त हो जाता है।
    • कोई कार्रवाई नहीं: यदि संसद द्वारा अध्यादेश के संबंध में कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, तो यह संसद के पुन: बैठक के छह सप्ताह की समाप्ति पर यह अध्यादेश स्वत: ही समाप्त हो जाता है।
      • यदि संसद के सदनों की अलग-अलग तिथियों पर पुनः बैठक की जाती है, तो छह सप्ताह की अवधि की गणना उन तिथियों में से बाद वाली बैठक की तिथि से की जाती है।
      • इस प्रकार, संसद द्वारा अस्वीकृत होने की स्थिति में, अध्यादेश का अधिकतम जीवनकाल छह महीने और छह सप्ताह हो सकता है।
        1. ऐसा इसलिए है क्योंकि संसद के सत्रों के बीच अधिकतम संभव अंतराल छह माह का हो सकता है।
  • राष्ट्रपति द्वारा घोषित अध्यादेश के संबंध में निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए:
    • यदि किसी अध्यादेश को संसद के समक्ष रखे बिना समाप्त होने दिया जाता है, तो उस अध्यादेश के तहत किये गए कार्यों को पूरी तरह से वैध और प्रभावी माना जाता हैं।
      • राष्ट्रपति किसी भी समय अध्यादेश को वापस ले सकते है।
    • हालाँकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति कोई विवेकाधीन शक्ति नहीं है।
      • बल्कि वह केवल केंद्रीय मंत्रिपरिषद (COMs) की सलाह पर किसी अध्यादेश को जारी या वापस ले सकते है।
    • किसी भी अन्य कानून की तरह, एक अध्यादेश भी पूर्वव्यापी हो सकता है।
      • इस प्रकार, यह भूतकालिक तिथि से लागू हो सकता है।
    • जहाँ तक अध्यादेश की परिधि का प्रश्न है, यह
      • संसद के किसी अधिनियम या किसी अन्य अध्यादेश को संशोधित या निरस्त कर सकता है।
      • किसी कर कानून में संशोधन कर सकते हैं।
      • लेकिन संविधान में संशोधन नहीं कर सकते।
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 213 राज्यपाल को ऐसी स्थितियों में अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान करता है जब राज्य विधान सभा (या द्विसदनीय विधानमंडलों वाले राज्यों में दोनों सदनों में से कोई भी) सत्र में न हो।
  • राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति राष्ट्रपति की शक्ति के लगभग समान है। राज्यपाल और राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति का तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा इसे बेहतर तरीकें से समझा जा सकता है।
समानताएँ
राष्ट्रपति (अनुच्छेद 123)राज्यपाल (अनुच्छेद 213)
– राष्ट्रपति द्वारा केवल तभी अध्यादेश जारी किया जा सकता है जब संसद के दोनों या एक सदन का सत्र में ना हो।– राज्यपाल द्वारा केवल तभी अध्यादेश जारी किया जा सकता है जब राज्य विधानमंडल के दोनों या एक भी सदन सत्र में ना हो।
– राष्ट्रपति द्वारा किसी अध्यादेश को तभी जारी किया जा सकता है जब वह संतुष्ट हो जाए कि ऐसी परिस्थितियाँ मौजूद हैं जिससे उनके लिए तत्काल कार्रवाई करना आवश्यक हो गया है।– राज्यपाल कोई अध्यादेश तभी जारी कर सकते है जब वह संतुष्ट हो जाए कि ऐसी परिस्थितियाँ मौजूद हैं जिसके कारण उनके लिए तत्काल कार्रवाई करना आवश्यक हो गया है।
– राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश जारी करने की शक्ति संसद की विधायी शक्ति के समान है।
– इसका तात्पर्य यह है कि वह केवल उन्हीं विषयों पर अध्यादेश जारी कर सकते है जिन पर संसद कानून बना सकती है।
– राज्यपाल द्वारा अध्यादेश जारी करने की शक्ति राज्य विधानमंडल की विधायी शक्ति के समान है।
– इसका तात्पर्य यह है कि वह केवल उन्हीं विषयों पर अध्यादेश जारी कर सकते है जिन पर राज्य विधानमंडल कानून का निर्माण कर सकते है।
– उनके द्वारा जारी अध्यादेश का प्रभाव संसद के अधिनियम के समान ही होता है।– उनके द्वारा जारी किये गए अध्यादेश का प्रभाव राज्य विधानमंडल के अधिनियम के समान ही होता है।
– उनके द्वारा जारी किया गया अध्यादेश संसद के अधिनियम के समान सीमाओं के अधीन है।
– इसका तात्पर्य यह है कि उनके द्वारा जारी किया गया अध्यादेश उस सीमा तक अमान्य होगा जब तक उसमे कोई ऐसा प्रावधान नहीं कर दिया जाता, जो संसद नहीं कर सकती।
– उसके द्वारा जारी किया गया अध्यादेश राज्य विधानमंडल के अधिनियम के समान ही सीमाओं के अधीन है।
– इसका तात्पर्य यह है कि उनके द्वारा जारी किया गया अध्यादेश उस सीमा तक अमान्य होगा जब तक उसमे ऐसा कोई ऐसा प्रावधान नहीं कर दिया जाता जो राज्य विधानमंडल द्वारा नहीं किया जाता।
– राष्ट्रपति के द्वारा किसी भी समय अध्यादेश वापस लिया जा सकता है।– राज्यपाल के द्वारा किसी भी समय अध्यादेश वापस लिया जा सकता है।
– राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति कोई विवेकाधीन शक्ति नहीं है। इसका अर्थ यह है कि राष्ट्रपति केवल प्रधान मंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही किसी अध्यादेश को जारी या वापस ले सकते है।– राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति कोई विवेकाधीन शक्ति नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि वह केवल मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही किसी अध्यादेश को जारी या वापस ले सकते है।
– संसद की पुनः बैठक होने पर एक अध्यादेश को दोनों सदनों के समक्ष रखा जाना चाहिए।– राज्यपाल के द्वारा जारी अध्यादेश को विधान सभा या राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों (द्विसदनीय विधायिका के मामले में) के समक्ष रखा जाना चाहिए, जब भी उनकी पुन: बैठक हो।
– राष्ट्रपति के द्वारा जारी किया गया अध्यादेश संसद की पुनः बैठक के छह सप्ताह की समाप्ति पर स्वत: ही समाप्त हो जाएगा,और यदि संसद के दोनों सदन इसे अस्वीकृत करने का प्रस्ताव पारित कर देते हैं तो यह निर्धारित छह सप्ताह से पहले भी समाप्त हो सकता है।– राज्यपाल के द्वारा जारी किया गया अध्यादेश राज्य विधानमंडल की पुनः बैठक के छह सप्ताह की समाप्ति पर स्वत: ही समाप्त हो जाएगा, तथा यदि इसे अस्वीकृत करने वाला प्रस्ताव विधान सभा द्वारा पारित कर दिया जाता है और विधान परिषद (द्विसदनीय विधायिका के मामले में)इस से सहमत हो जाती है, तो यह निर्धारित छह सप्ताह से पहले भी समाप्त हो सकता है।
अंतर
राष्ट्रपति (अनुच्छेद 123राज्यपाल (अनुच्छेद 213)
– अध्यादेश जारी करने के लिए उन्हें किसी निर्देश की आवयश्कता नहीं है।– राज्यपाल द्वारा तीन मामलों में राष्ट्रपति के निर्देश के बिना अध्यादेश जारी नहीं किया जा सकता:
1. ऐसे किसी मामले जिसमे राज्य विधानमंडल में विधेयक को पेश करने के लिए राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता होती है।
2. यदि राज्यपाल द्वारा यह आवश्यक समझा जाता है कि समान प्रावधानों वाला विधेयक राष्ट्रपति के विचारार्थ के लिए सुरक्षित रखा गया है।
3. यदि राज्य विधानमंडल का कोई अधिनियम, जिसमें समान प्रावधान हों, राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त किए बिना अमान्य होगा।
  • आपातकालीन उपाय: यह कार्यपालिका के पास किसी भी अप्रत्याशित परिस्थिति या जरूरी मामले से निपटने के लिए एक अति-आवश्यक आपातकालीन उपाय है। यह कार्यपालिका को नियमित विधायी प्रक्रिया की प्रतीक्षा किये बिना ऐसे मामलों का तत्काल जवाब देने की अनुमति प्रदान करता है।
  • अबाधित शासन: ऐसे उदाहरण हो सकते हैं जहाँ कुछ विधेयकों पर विधायिका में पर्याप्त विचार-विमर्श किया गया हो, लेकिन विपक्ष के अवरोधक दृष्टिकोण के कारण पारित नहीं किया जा सका। ऐसे मामलों में अध्यादेश जारी करने से निर्बाध शासन सुनिश्चित होता है।
  • ‘शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत’ का उल्लंघन : भारतीय संविधान में परिकल्पित शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत के अनुसार, कानून का निर्माण करना विधायिका की परिधि में आता है। कार्यपालिका को विधायिका के दायरे में प्रवेश करने की अनुमति देकर, अध्यादेश के प्रावधान शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं।
  • लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कमजोर करता है: कभी-कभी, कार्यपालिका विवादास्पद विधायी प्रस्तावों पर विधायिका में बहस और विचार-विमर्श से बचने के लिए अध्यादेश का रास्ता अपनाती है। यह लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कमज़ोर करता है।
  • दुरुपयोग: विधायिका में संबंधित विधेयक को पेश करने के किसी भी प्रयास के बिना, अध्यादेशों को लगातार फिर से लागू करने के उदाहरण सामने आए हैं।
    • जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने डीसी वधवा मामले में देखा है, 1967-98 की अवधि के दौरान, बिहार में कुछ अध्यादेशों को लगातार पुनः जारी करके 14 वर्षों तक लागू रखा गया था।
  • अध्यादेश राज का डर : बार-बार अध्यादेश जारी करना और उनको फिर से जारी करना ‘अध्यादेश राज’ का वातावरण बनाता है, जहाँ कार्यपालिका सार्थक विधायी प्रक्रियाओं में शामिल होने के बजाय अध्यादेशों पर निर्भर करती है।
  • अस्पष्ट प्रावधान : संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार, राष्ट्रपति या राज्यपाल तभी अध्यादेश जारी कर सकते हैं, जब वे इस बात से संतुष्ट हों कि ऐसी परिस्थितियां मौजूद हैं जिनके लिए उन्हें तत्काल कार्रवाई करना आवश्यक है। हालाँकि, अत्यावश्यक परिस्थितियों का कोई स्पष्ट सीमांकन नहीं होने के कारण, कार्यपालिका इसे अंतिम उपाय मानने के बजाय इस शक्ति पर नियमित रूप से भरोसा कर रही है। ऐसे कुछ उदाहरण हैं:
    • प्रतिभूति विधि (संशोधन) अध्यादेश, 2014: इस अध्यादेश को 15वीं लोकसभा के कार्यकाल के दौरान तीसरी बार फिर से लागू किया गया, जिसने विधायी प्रक्रिया को दरकिनार करने और संसदीय जाँच के अभाव के बारे में चिंता जताई।
    • भारतीय चिकित्सा परिषद (संशोधन) अध्यादेश, 2010: इस अध्यादेश को चार बार फिर से लागू किया गया, जो न्यायिक और लोकतांत्रिक मानदंडों के प्रति लगातार उपेक्षा का संकेत देता है।

भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों पर अध्यादेशों को जारी करने और उन्हें फिर से लागू करने के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने अपने विचार व्यक्त किये हैं। ऐसे कुछ प्रमुख मामले हैं:

  • आर सी कूपर बनाम भारत संघ मामला (1970): इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि ‘अध्यादेश जारी करने के लिए तत्काल परिस्थितियों का होना’ के संबंध में राष्ट्रपति की संतुष्टि को अदालत में चुनौती दी जा सकती है। इस प्रकार, राष्ट्रपति की संतुष्टि न्यायिक समीक्षा से मुक्त नहीं है।
  • डीसी वधवा बनाम बिहार राज्य मामला (1987): इस मामले में, न्यायालय ने अध्यादेशों को फिर से लागू करने की प्रथा की निंदा की, इसे संविधान के साथ ‘धोखा‘ बताया। यह मामले में यह निर्णय दिया गया, कि कार्यपालिका को अध्यादेश जारी करने की शक्ति का प्रयोग केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए। यह विधायिका की विधायी शक्ति का विकल्प नहीं है।
  • कृष्ण कुमार सिंह बनाम बिहार राज्य मामला (2017): इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने दोहराया कि अध्यादेश जारी करने का अधिकार पूर्ण नहीं है, बल्कि इस शर्त पर आधारित है कि परिस्थितियों में तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता थी। अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि अध्यादेशों को फिर से लागू करना असंवैधानिक है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करता है, संवैधानिक सिद्धांतों और मानदंडों के पालन की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

निष्कर्ष के रूप में, जबकि अध्यादेश जारी करने की शक्ति सरकार के पास एक वांछनीय उपकरण है, इसका उपयोग सावधानी के साथ किया जाना चाहिए। शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत की आवश्यकताओं के साथ तत्काल मामलों को संबोधित करने की आवश्यकता को संतुलित करना महत्त्वपूर्ण है। केवल इस तरह के संतुलन के माध्यम से ही अध्यादेश जारी करने की शक्ति अपने लक्षित उद्देश्य की पूर्ति कर सकती है, लोकतांत्रिक आधारों को कमजोर किये बिना जिनकी वह रक्षा करना चाहती है।

रंगीन विधान का सिद्धांत (The Doctrine of Colorable Legislation)
इस सिद्धांत का अर्थ है कि यदि किसी विधायिका के पास किसी विशिष्ट विषय पर प्रत्यक्ष रुप से कानून बनाने का अधिकार क्षेत्र नहीं है, तो वह अप्रत्यक्ष रूप से उस पर कानून नहीं बना सकती। यह सिद्धांत विधायी प्राधिकरणों के अतिक्रमण को रोकने के लिए अस्तित्व में आया।

राष्ट्रपति के द्वारा कब अध्यादेश जारी किया जा सकता है?

राष्ट्रपति तब अध्यादेश जारी कर सकते है जब संसद के दोनों में से कोई एक सदन या दोनों सदन सत्र में न हों।

अध्यादेश की वैधता क्या है?

अध्यादेश की अधिकतम वैधता 6 महीने और 6 सप्ताह है। एक बार संसद के दोनों सदन सत्र में आने के पश्चात् अध्यादेश 6 सप्ताह के बाद समाप्त हो जाएगा।

क्या अध्यादेश राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्ति है?

अध्यादेश जारी करने की राष्ट्रपति की शक्ति विवेकाधीन नहीं है। अध्यादेश प्रधान मंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद की सिफारिशों एवं सलाह पर पारित किया जा सकता है।

क्या अध्यादेश जारी करने की शक्ति न्यायिक समीक्षा के अधीन है?

हां, अध्यादेश जारी करने की शक्ति दुर्भावना के आधार पर न्यायिक समीक्षा के अधीन है।

अध्यादेश कब पारित किया जा सकता है?

अध्यादेश भारत के राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा तब पारित किया जा सकता है जब संसद/राज्य विधानमंडल का सत्र नहीं चल रहा हो।

अध्यादेश कितनी बार जारी किया जा सकता है?

राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा जारी किये जा सकने वाले अध्यादेशों की संख्या की कोई विशेष सीमा नहीं है।

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