संवैधानिक नैतिकता की रूपरेखा

पाठ्यक्रम: GS2/भारतीय राजनीति

संदर्भ

  • हाल के वर्षों में भारत की संवैधानिक न्यायालयों ने ‘संवैधानिक नैतिकता’ की अवधारणा को संवैधानिक व्याख्या और न्यायिक तर्क के लिए पुनर्जीवित किया है। यह अब कानूनों की संवैधानिक वैधता की कसौटी और सार्वजनिक नैतिकता की अस्थिरता के विरुद्ध एक सुरक्षा बन गई है।

संवैधानिक नैतिकता के बारे में 

  • अवधारणा की उत्पत्ति: संवैधानिक नैतिकता का विचार जॉर्ज ग्रोट की पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ ग्रीस” (1846) से लिया गया है, जिसमें उन्होंने इसे ‘संविधान के स्वरूपों के प्रति सर्वोच्च श्रद्धा’ के रूप में वर्णित किया।
    • ग्रोट के अनुसार, संवैधानिक नैतिकता में आवश्यक है:
      • संवैधानिक स्वरूपों और प्रक्रियाओं का पालन;
      • पदों और संस्थाओं का सम्मान;
      • सार्वजनिक तर्क द्वारा निर्देशित नागरिक आत्म-संयम।
  • डॉ. बी.आर. अंबेडकर, ग्रोट से प्रेरित होकर, संविधान सभा की परिचर्चाओं में इस अवधारणा का उल्लेख करते हुए चेतावनी दी थी कि भारत में लोकतंत्र केवल ‘अलोकतांत्रिक मिट्टी पर एक सजावट’ है। यह संविधान में निहित मूल सिद्धांतों के प्रति निष्ठा को दर्शाता है, भले ही वे लोकप्रिय भावना या राजनीतिक सुविधा से टकराते हों।
    • यह गहन प्रतिबद्धता की मांग करता है:
      • स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व;
      • संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान;
      • सहिष्णुता और बहुलवाद;
      • सार्वजनिक तर्क और आत्म-संयम।
  • ए.वी. डाइस ने संविधान के कानून (जो न्यायालयों द्वारा लागू किया जा सकता है) और संविधान की परंपराओं या संवैधानिक नैतिकता (जो कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं लेकिन राजनीतिक रूप से अनिवार्य हैं) के बीच अंतर किया।
    • ऐसी परंपराओं का उल्लंघन न्यायिक कार्रवाई को आकर्षित नहीं कर सकता, लेकिन गंभीर राजनीतिक परिणाम ला सकता है।

संवैधानिक नैतिकता क्यों महत्वपूर्ण है? 

  • हाल के वर्षों में संवैधानिक नैतिकता न्यायिक निर्णयों में एक शक्तिशाली व्याख्यात्मक उपकरण के रूप में उभरी है। न्यायालयों ने इसका उपयोग किया है:
    • मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कानूनों को रद्द करने के लिए;
    • संस्थाओं की स्वतंत्रता को सुदृढ़ करने के लिए;
    • बहुसंख्यक प्रवृत्तियों के विरुद्ध अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा के लिए। 
  • संवैधानिक नैतिकता सार्वजनिक नैतिकता की अस्थिरता के विरुद्ध एक ढाल का कार्य करती है, जो लोकलुभावनता या पूर्वाग्रह से प्रभावित हो सकती है।

संवैधानिक नैतिकता की चुनौतियाँ

  • ऐतिहासिक निष्क्रियता: संविधान सभा में चर्चा के बावजूद संवैधानिक नैतिकता दशकों तक निष्क्रिय रही।
    • हाल ही में यह कानूनी और अकादमिक क्षेत्रों में चर्चा में आई है।
  • बहुसंख्यकवाद बनाम संवैधानिक मूल्य: लोकप्रिय नैतिकता प्रायः समानता और स्वतंत्रता जैसे संवैधानिक सिद्धांतों से टकराती है।
    • बहुसंख्यक भावना से प्रेरित कानून या नीतियाँ अल्पसंख्यक अधिकारों या धर्मनिरपेक्षता को कमजोर कर सकती हैं।
  • न्यायिक असंगति: न्यायालयों ने संवैधानिक नैतिकता को कई ऐतिहासिक मामलों में लागू किया है, लेकिन इसका प्रयोग असमान रहा है।
    • स्पष्ट ढांचे की कमी से व्यक्तिपरक व्याख्याएं होती हैं, जिससे न्यायिक अतिक्रमण का खतरा रहता है।
  • उल्लंघन और जवाबदेही: संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन हमेशा न्यायिक कार्रवाई योग्य नहीं होता, लेकिन इसके राजनीतिक या नैतिक परिणाम होते हैं।
    • उदाहरण के लिए, संवैधानिक शिष्टाचार की अवहेलना संसद में निंदा या मतदाताओं की अस्वीकृति को आमंत्रित कर सकती है। 
    • इस प्रकार, संवैधानिक नैतिकता कानूनी और गैर-कानूनी दोनों प्रकार की जवाबदेही के माध्यम से कार्य करती है।
  • संस्थागत कमजोरी: संवैधानिक संस्थाएँ (जैसे चुनाव आयोग, न्यायपालिका) कभी-कभी दबाव या राजनीतिकरण का सामना करती हैं।
    • कमजोर संस्थागत स्वतंत्रता संवैधानिक नैतिकता के प्रवर्तन को बाधित करती है।
  • जन उदासीनता और सीमित जागरूकता: नागरिकों में संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों की जानकारी की कमी होती है।
    • नागरिक शिक्षा के अभाव में सार्वजनिक विमर्श भावनात्मक या सांप्रदायिक प्रवृत्तियों की ओर विकसित हो सकता है।

कानून और नैतिकता पर परिचर्चा

  • हार्ट–डेवलिन विवाद (1960 के दशक): यह कानूनी सकारात्मकता और नैतिक प्रवर्तन के बीच टकराव का प्रतीक था।
    • लॉर्ड डेवलिन का मानना था कि कानून को सामाजिक नैतिकता को बनाए रखना चाहिए ताकि विघटन को रोका जा सके, जबकि एच.एल.ए. हार्ट ने कानूनी बल द्वारा नैतिक समानता थोपने के विरुद्ध चेतावनी दी। 
  • न्यायिक मान्यता: हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने राज्य की नैतिक कल्याण को बनाए रखने के लिए न्यायालयों की अवशिष्ट शक्ति को स्वीकार किया।
    • इसी तरह, पी. रथिनम बनाम भारत संघ (1994) 3 SCC 394 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति फ्रैंकफर्टर के विचार को उद्धृत किया कि कानून नैतिक सिद्धांतों में निहित अधिकारों को समाहित करता है, जो ‘न्यायसंगत, उचित और सही’ को दर्शाता है। 
  • कानून नैतिकता का नेतृत्व और अनुसरण करता है: कभी-कभी कानून नैतिकता का नेतृत्व करता है — जैसे अस्पृश्यता का उन्मूलन, जहाँ कानूनी परिवर्तन सामाजिक स्वीकृति से पहले आया।
    • कभी-कभी कानून नैतिकता का अनुसरण करता है — जैसे लैंगिक समानता की क्रमिक स्वीकृति।

समकालीन परिचर्चा

  • कुछ लोगों के लिए, संवैधानिक नैतिकता अस्थायी बहुसंख्यक प्रवृत्तियों से व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करने वाली एक ढाल है।
    • अन्य लोगों के लिए, यह न्यायिक अतिक्रमण का प्रतीक है — एक ‘खतरनाक हथियार’ जो सामाजिक मानदंडों को पुनः आकार देने में सक्षम है। 
  • अब इसका प्रभाव LGBTQ+ अधिकारों, महिलाओं के मंदिर प्रवेश, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और राष्ट्रीय सुरक्षा बनाम नागरिक स्वतंत्रता जैसे मुद्दों पर परिचर्चा में देखा जा सकता है।

न्यायिक व्याख्या

  • एस.पी. गुप्ता मामला (1981): न्यायमूर्ति वेंकटारमैया ने कहा कि संवैधानिक परंपराओं का उल्लंघन संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन है, भले ही वह कानून का उल्लंघन न हो।
  • इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन बनाम केरल राज्य (2018, सबरीमाला मामला): मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने अनुच्छेद 25 के अंतर्गत ‘सार्वजनिक नैतिकता’ को संवैधानिक नैतिकता के समकक्ष माना, हालांकि बाद में इस पर विवाद हुआ।
  • मनोज नरूला बनाम भारत संघ (2014): न्यायालय ने कहा कि संवैधानिक नैतिकता का अर्थ है संविधान के मानदंडों का पालन, और राजनीतिक नेताओं में नैतिक संयम की आवश्यकता।
  • राज्य (एनसीटी दिल्ली) बनाम भारत संघ (2018): न्यायालय ने संवैधानिक नैतिकता की परिभाषा को उदार मूल्यों और सहमति आधारित शासन तक विस्तारित किया।
  • न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी (सेवानिवृत्त) बनाम भारत संघ (2017): गोपनीयता के अधिकार को संवैधानिक नैतिकता और विधि के शासन के एक पहलू के रूप में मान्यता दी गई।

आगे का रास्ता: एक परिपक्व संविधानवाद का वादा

  •  संवैधानिक नैतिकता अंधभक्ति नहीं है — यह अनुशासित निष्ठा है। यह सिखाती है कि संविधान के प्रति निष्ठा इस बात में है कि हम इसे कैसे बनाए रखते हैं, न कि केवल इसमें क्या प्राप्त होता है। 
  • गंभीर राजनीतिक ध्रुवीकरण के समय में, यह हमें स्मरण दिलाती है कि संवैधानिक प्रतिबद्धता कठोरता नहीं लाती, और संवैधानिक आलोचना विश्वास को कमजोर नहीं करती। 
  • संविधान निर्माताओं ने संविधान को श्रद्धा एवं सुधार दोनों का जीवंत दस्तावेज माना — एक ऐसा ढांचा जहाँ स्वतंत्रता संयम के माध्यम से फलती है और न्याय तर्क के माध्यम से।
दैनिक मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न
[प्रश्न] समकालीन भारतीय संवैधानिक न्यायशास्त्र में संवैधानिक नैतिकता एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कैसे कार्य करती है, और व्यवहार में इसे किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?

Source: TH

 

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