सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लोक सेवकों के विरुद्ध भ्रष्टाचार की जांच में स्क्रीनिंग प्रक्रिया की समीक्षा 

पाठ्यक्रम: GS2/राजव्यवस्था और शासन

संदर्भ

  • सर्वोच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 17A की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई की, जिसमें ईमानदार अधिकारियों की सुरक्षा और भ्रष्टाचार जांच में जवाबदेही सुनिश्चित करने के बीच संतुलन की बात की गई।

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 17A क्या है?

  • यह धारा 2018 के संशोधन के माध्यम से अधिनियम में जोड़ी गई थी।
  • इसके अंतर्गत किसी भी लोक सेवक के विरुद्ध पुलिस द्वारा कोई जांच या पूछताछ तभी की जा सकती है जब सक्षम प्राधिकारी (केंद्र या राज्य सरकार) से पूर्व अनुमति प्राप्त हो, यदि कार्य उनके आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में किया गया हो।
  • इसका उद्देश्य ईमानदार अधिकारियों को उत्पीड़न से बचाना और अभियोजन के भय से नीति-निर्धारण में ठहराव को रोकना है।
  • आलोचकों का कहना है कि यह प्रावधान भ्रष्टाचार के मामलों में समय पर कार्रवाई में बाधा उत्पन्न करता है, क्योंकि पूर्व अनुमति अक्सर विलंबित या अस्वीकृत होती है।

सर्वोच्च न्यायालय में उठाए गए प्रमुख मुद्दे

  • धारा 17A को चुनौती: पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (CPIL) द्वारा दायर याचिका में तर्क दिया गया कि:
    • यह प्रावधान भ्रष्टाचार विरोधी जांच को कमजोर बनाता है।
    • सरकारें, जो सक्षम प्राधिकारी हैं, अपने ही अधिकारियों का मूल्यांकन करती हैं, जिससे निष्पक्षता प्रभावित होती है।
    • कई मामलों में, विशेषकर राज्य स्तर पर, अनुमति नहीं दी जाती, जिससे जांच अवरुद्ध हो जाती है।
  • धारा 13(1)(d)(ii) (पद के दुरुपयोग) को हटाना भ्रष्टाचार विरोधी कानून की प्रभावशीलता को कमजोर करता है।

सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • संवैधानिकता बनाम कार्यान्वयन: न्यायालय ने कहा कि उठाए गए कई मुद्दे प्रावधान की संवैधानिक वैधता से अधिक इसके कार्यान्वयन की कमियों से संबंधित हैं।
  • कोर्ट ने चेतावनी दी कि अभियोजन का भय नीति-निर्धारण में ठहराव ला सकता है, और ईमानदार अधिकारियों को निरर्थक कार्यवाही से बचाना आवश्यक है।
  • साथ ही, कोर्ट ने ईमानदार अधिकारियों की सुरक्षा और भ्रष्टाचार जांच को सक्षम बनाने के बीच संतुलन की आवश्यकता पर बल दिया।

चिंताएँ क्या हैं?

  • धारा 17A के अंतर्गत पूर्व अनुमति की आवश्यकता भ्रष्टाचार जांच शुरू करने में महत्वपूर्ण देरी का कारण बनती है, जिससे कानून की निवारक शक्ति कम हो जाती है।
  • शक्तियों का पृथक्करण न्यायपालिका को तत्काल सुधारात्मक कार्रवाई करने से रोकता है, जब तक कि प्रावधान असंवैधानिक न पाया जाए।
  • वर्तमान व्यवस्था में अनुमति देने के लिए निष्पक्ष और समयबद्ध तंत्र की कमी है, जिससे पारदर्शिता एवं निर्णय प्रक्रिया की वस्तुनिष्ठता पर प्रश्न उठते हैं।

विभिन्न समिति की सिफारिशें

  • राज्यसभा चयन समिति (2016):
    • प्रत्येक जांच के लिए सरकारी अनुमति की आवश्यकता को बुनियादी स्तर पर कठिन बताया गया, जिससे जन विश्वास कमजोर होता है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।
    • सुझाव दिया गया कि अनुमति तंत्र को केवल वरिष्ठ अधिकारियों तक सीमित किया जाए और अनुमोदन प्रक्रिया को सरल बनाया जाए।
  • संथानम समिति (1962):
    • केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) की स्थापना की सिफारिश की गई, ताकि वह स्वतंत्र रूप से अनुमति अनुरोधों की समीक्षा कर सके और CBI जैसी एजेंसियों के माध्यम से जांच का निर्देश दे सके।

आगे की राह

  • समयबद्ध अनुमति प्रक्रिया: धारा 17A के अंतर्गत अनुमति देने या अस्वीकार करने के लिए अनिवार्य समयसीमा निर्धारित की जाए, ताकि जांच शुरू करने में अनावश्यक देरी न हो।
  • न्यायिक सुरक्षा उपाय: न्यायालयों को यह अधिकार प्रदान किया जाए कि वे अनुमति देने में अनावश्यक विलंब या अनुचित अस्वीकृति की जांच कर सकें, ताकि भ्रष्टाचार विरोधी प्रणाली में पारदर्शिता और संतुलन सुनिश्चित किया जा सके।

Source: TH

 

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