पाठ्यक्रम: GS2/शासन
समाचार में
- केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय ने एक नीति जारी की है, जिसमें यह अनिवार्य किया गया है कि बाघ अभयारण्यों से वनवासी समुदायों का पुनर्वास “अत्यंत अपवादस्वरूप, स्वैच्छिक और प्रमाण-आधारित” होना चाहिए।
पृष्ठभूमि
- भारत की बाघ संरक्षण रणनीति अब बहिष्करण आधारित “किले जैसी संरक्षण” पद्धति से अधिकार-आधारित, समुदाय-केंद्रित मॉडल की ओर बढ़ रही है।
- ऐतिहासिक रूप से, बाघ अभयारण्यों की स्थापना के दौरान वनवासी समुदायों को विस्थापित किया गया था, लेकिन अब केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय (MoTA) ने यह निर्देश दिया है कि पुनर्वास अंतिम विकल्प होना चाहिए, स्वैच्छिक, वैज्ञानिक रूप से उचित, अधिकारों के अनुरूप और न्यायसंगत होना चाहिए।
| क्या आप जानते हैं? – वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006: यह अधिनियम ग्राम सभा से स्वतंत्र, पूर्व और सूचित सहमति (FPIC), वन्यजीवों के साथ सह-अस्तित्व की असंभवता का वैज्ञानिक प्रमाण, प्रभावित परिवारों की स्वैच्छिक सहमति, एवं समग्र पुनर्वास को अनिवार्य करता है। 1. वन अधिकार अधिनियम (FRA) संविधान में समानता (अनुच्छेद 14), जीवन एवं आजीविका (अनुच्छेद 21), और अनुसूचित क्षेत्रों में स्वशासन (अनुच्छेद 244) की गारंटी से गहराई से जुड़ा हुआ है। – वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम (WLPA), 1972: बाघ संरक्षण जनजातीय या वनवासियों के अधिकारों को तब तक प्रभावित नहीं कर सकता जब तक कि अपूरणीय पारिस्थितिकीय क्षति सिद्ध न हो जाए और सभी विकल्प विफल न हो जाएं। 1. ये दोनों कानून मिलकर एक “अधिकार-प्रथम, विज्ञान-आधारित, सहमति-प्रेरित” ढांचा स्थापित करते हैं, जिसमें प्रमाण का भार समुदाय पर नहीं बल्कि राज्य पर होता है। |
मुख्य सिफारिशें
- यह नीति बाघ अभयारण्यों से वनवासी समुदायों के पुनर्वास के लिए अधिकार-आधारित, नैतिक दृष्टिकोण का समर्थन करती है।
- यह अनिवार्य करती है कि पुनर्वास स्वैच्छिक, वैज्ञानिक रूप से उचित और वन अधिकार अधिनियम (FRA) तथा वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (WLPA) के अनुरूप हो।
- यह स्वतंत्र, पूर्व और सूचित सहमति (FPIC), मजबूत पुनर्वास एवं निर्णय लेने में ग्राम सभा की भूमिका पर बल देती है।
- अधिकारियों का यह नीतिगत दायित्व है कि वे ईमानदारी से कार्य करें, और सार्वजनिक डैशबोर्ड तथा स्वतंत्र ऑडिट जैसी व्यवस्थाएं जवाबदेही सुनिश्चित करने तथा संरक्षण के नाम पर विस्थापन के दुरुपयोग को रोकने के लिए आवश्यक हैं।
- यह दो मार्गों की रूपरेखा प्रस्तुत करती है:
- सह-अस्तित्व, जिसमें समुदाय अपने पारंपरिक आवास में रहते हैं और उन्हें आधारभूत संरचना, संरक्षण में भूमिका और आजीविका सहायता मिलती है।
- स्वैच्छिक पुनर्वास, जिसमें भूमि के बदले भूमि, आजीविका की पुनर्स्थापना, सांस्कृतिक पहुंच और कठोर निगरानी शामिल होनी चाहिए। इस दृष्टिकोण को पांच मूल सिद्धांतों द्वारा निर्देशित किया गया है—अधिकारों की सुरक्षा, समुदाय की आत्मनिर्णय क्षमता, समानता, वैज्ञानिक पारदर्शिता और जवाबदेही।
- राष्ट्रीय समुदाय-केंद्रित संरक्षण और पुनर्वास ढांचा (NFCCR) की स्थापना की जाए ताकि प्रक्रियात्मक मानक, समयसीमा और जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके।
- संरक्षण-समुदाय अंतरसंबंध पर राष्ट्रीय डाटाबेस (NDCCI) बनाया जाए ताकि पुनर्वास, मुआवज़ा और पुनर्वास के बाद के परिणामों को ट्रैक किया जा सके।

आगे की राह
- केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत यह नई नीति रूपरेखा भारत की संरक्षण रणनीति में एक परिवर्तनकारी बदलाव का संकेत देती है, जो जनजातीय अधिकारों और नैतिक पुनर्वास पद्धतियों को प्राथमिकता देती है।
- भारत के वन्यजीवों की रक्षा और वनवासी समुदायों के अधिकारों व गरिमा की रक्षा—ये दोनों लक्ष्य अविभाज्य हैं, जिनके लिए सहयोग, पारदर्शिता एवं संवैधानिक व पारिस्थितिकीय मूल्यों का सम्मान आवश्यक है।
Source: TH
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