पाठ्यक्रम: GS2/राजव्यवस्था एवं शासन
संदर्भ
- संविधान (एक सौ तीसवां संशोधन) विधेयक, 2025 का प्रस्ताव शासन और जवाबदेही को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से किया गया है, लेकिन इसके साथ ही यह लोकतांत्रिक सिद्धांतों एवं नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए गंभीर जोखिम भी उत्पन्न करता है।
संविधान (एक सौ तीसवां संशोधन) विधेयक, 2025 के बारे में
- यह विधेयक अनुच्छेद 75, 164 और 239AA में संशोधन का प्रस्ताव करता है — जो क्रमशः केंद्र के मंत्री परिषद, राज्यों के मंत्री परिषद और दिल्ली के प्रशासनिक प्रावधानों को नियंत्रित करते हैं।
- इसका उद्देश्य कार्यपालिका में जवाबदेही सुनिश्चित करना है, जिसके अंतर्गत ऐसे मंत्रियों को पद से हटाना अनिवार्य होगा जो पांच वर्ष या उससे अधिक की सजा वाले अपराध में लगातार 30 दिनों तक हिरासत में रहें।
| संविधान संशोधन विधेयक क्या होता है? – यह एक विधायी प्रस्ताव होता है, जिसे अनुच्छेद 368 के अंतर्गत भारतीय संविधान के प्रावधानों में संशोधन के लिए प्रस्तुत किया जाता है, जैसे सरकार की संरचना, चुनावी प्रक्रियाएं या मौलिक अधिकारों में परिवर्तन। – इसके लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है: संसद के प्रत्येक सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई का समर्थन। – कुछ संशोधनों के लिए राज्यों की आधी विधानसभाओं द्वारा अनुमोदन आवश्यक होता है, विशेषकर जब वे संघीय प्रावधानों को प्रभावित करते हैं (जैसे केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण)। |
विधेयक के प्रमुख प्रावधान
- गिरफ्तारी पर मंत्रियों की स्वतः पदच्युतता: विधेयक प्रस्तावित करता है कि कोई भी मंत्री, जिसमें प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री भी शामिल हैं, यदि किसी आपराधिक मामले में निरंतर 30 दिनों तक हिरासत में रहते हैं, तो उन्हें स्वतः पद से हटा दिया जाएगा।
- यह प्रावधान दोषसिद्धि की परवाह किए बिना लागू होगा, ताकि शासन में नैतिक मानकों को बनाए रखा जा सके।
- अनुच्छेद 75 और 164 में संशोधन: विधेयक संविधान के अनुच्छेद 75 (केंद्र मंत्री परिषद) और अनुच्छेद 164 (राज्य मंत्री परिषद) में संशोधन करना चाहता है।
- ये संशोधन गंभीर आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए पदच्युत करने की प्रक्रिया को संस्थागत रूप देंगे।
- राजनीतिक भ्रष्टाचार की प्रतिक्रिया: सरकार इस विधेयक को एक सुधारात्मक उपाय के रूप में प्रस्तुत करती है ताकि जेल से सरकार चलाने की प्रवृत्ति को रोका जा सके — एक मुद्दा जो हाल की राजनीतिक विवादों में उठाया गया है।
- नैतिक शासन मानक: यह विधेयक उन नियमों से प्रेरित है जिनके अंतर्गत 48 घंटे से अधिक हिरासत में रहने वाले सिविल सेवकों को ‘माना गया निलंबन’ लागू होता है।
- विधेयक निर्वाचित अधिकारियों के लिए 30 दिन की सीमा तय करता है और पांच वर्ष की न्यूनतम सजा वाले अपराधों को पदच्युत करने का आधार बनाता है।
संबंधित चिंताएं और मुद्दे
- गिरफ्तारी की विवेकाधीन शक्ति: पुलिस और प्रवर्तन एजेंसियों को गिरफ्तारी के संबंध में दी गई व्यापक विवेकाधीन शक्तियाँ राजनीतिक दुरुपयोग की संभावना उत्पन्न करती हैं, क्योंकि ‘गिरफ्तारी’ स्वयं मंत्री पद के अयोग्यता का कारण बन जाती है।
- गिरफ्तारी का अनुपातहीन उपयोग: राष्ट्रीय पुलिस आयोग (1977) ने पाया था कि लगभग 60% गिरफ्तारियाँ अनावश्यक या अनुचित थीं।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS): जो अब CrPC का स्थान ले रही है, उसमें ‘गिरफ्तार किया जा सकता है’ जैसी भाषा बनी हुई है, जिससे विवेकाधीन और व्यक्तिपरक उपयोग की गुंजाइश बनी रहती है।
- राजनीतिक दुरुपयोग का जोखिम: प्रस्तावित संशोधन राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
- कार्यपालिका की जांच एजेंसियों पर प्रभाव की धारणा को देखते हुए विपक्षी नेताओं को रणनीतिक गिरफ्तारियों के माध्यम से निशाना बनाया जा सकता है।
- अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014): उच्च न्यायालयों ने बार-बार इस निर्णय के अनुपालन की कमी को रेखांकित किया है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस को गिरफ्तारी के कारण दर्ज करने का निर्देश दिया था।
- न्यायिक हिरासत की स्वीकृति: 30 दिन की न्यायिक हिरासत के बाद पदच्युत करने का प्रावधान यह मानता है कि हिरासत का अर्थ दोष है, जो निर्दोषता की धारणा के विपरीत है।
- न्यायलय कमजोर मामलों में भी रिमांड दे सकती हैं, जिससे बिना दोषसिद्धि के हिरासत बढ़ जाती है।
30-दिन की हिरासत शर्त और जमानत संबंधी चुनौतियाँ
- जमानत एक निर्णायक कारक: 30 दिन की सीमा जमानत निर्णय को अत्यंत महत्वपूर्ण बना देती है।
- यदि कोई मंत्री 31वें दिन से पहले जमानत प्राप्त कर लेता है, तो वह अयोग्यता से बच जाता है।
- लेकिन जमानत प्रायः अपराध की गंभीरता या राजनीतिक स्थिति जैसे व्यक्तिपरक कारणों से अस्वीकृत हो जाती है।
- डिफॉल्ट जमानत की अनदेखी: विधेयक CrPC की धारा 167(2) / BNSS की धारा 187 के तहत डिफॉल्ट जमानत प्रावधानों को ध्यान में नहीं रखता, जो जांच 60–90 दिनों में पूरी न होने पर रिहाई की अनुमति देते हैं।
- अतः 30-दिन का नियम प्रक्रियात्मक समयसीमा के साथ असंगत और मनमाना प्रतीत होता है।
- विशेष कानूनों का प्रभाव: PMLA, NDPS और UAPA जैसे कानूनों के अंतर्गत अपराधों को शामिल करने से लंबी हिरासत का जोखिम बढ़ जाता है, क्योंकि इन कानूनों में दोहरी जमानत शर्तें होती हैं जो दोष सिद्धि का भार उलट देती हैं।
- मनीष सिसोदिया मामला इसका उदाहरण है — उन्हें PMLA के अंतर्गत 17 महीने की हिरासत के बाद ही जमानत मिली।
- शक्ति, प्रभाव और जमानत की दुविधा: न्यायालय मंत्रियों को गवाहों को प्रभावित करने या साक्ष्यों से छेड़छाड़ करने में सक्षम मान सकती हैं, जिससे जमानत की संभावना कम हो जाती है।
- यह एक विरोधाभास उत्पन्न करता है — मंत्री पद पर बने रहना जमानत को बाधित कर सकता है, जबकि त्यागपत्र देना राजनीतिक करियर को समय से पहले समाप्त कर सकता है।
गिरफ्तारी और हिरासत पर न्यायिक दृष्टिकोण
- दीनन बनाम जयललिता (1989): मद्रास उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि CrPC की धारा 41 के अंतर्गत गिरफ्तारी की शक्ति विवेकाधीन है, अनिवार्य नहीं।
- जोगिंदर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1994): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि केवल वैध होने के कारण गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए।
- अमरावती बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2004): इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दोहराया कि पुलिस हर संज्ञेय अपराध में गिरफ्तारी के लिए बाध्य नहीं है।
- सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम CBI (2022): सर्वोच्च न्यायालय ने CrPC की धारा 41 और 41A के अनुपालन की पुष्टि की, और स्वतंत्रता में न्यूनतम हस्तक्षेप पर बल दिया।
आगे की राह: सुधार और संवैधानिक सुरक्षा के बीच संतुलन
- न्यायिक निगरानी और सुरक्षा उपाय: सर्वोच्च न्यायालय ने बल दिया है कि केवल गिरफ्तारी की वैधता पर्याप्त नहीं है — हिरासत के लिए उचित आधार होना चाहिए।
- दुरुपयोग को रोकने और उचित प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए न्यायिक समीक्षा तंत्र को शामिल करना आवश्यक है।
- संसदीय जांच: विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया है, जो इसकी संवैधानिक वैधता, दायरे और दुरुपयोग की संभावनाओं की जांच करेगी।
- विधेयक को परिष्कृत करना और विपक्षी नेताओं व नागरिक समाज द्वारा उठाई गई चिंताओं को संबोधित करना आवश्यक है।
- राजनीतिक सहमति और बहस: विपक्षी नेताओं ने इसे ‘सुपर इमरजेंसी’ और लोकतंत्र के लिए खतरा बताया है।
- यह सुनिश्चित करने के लिए कि विधेयक पक्षपातपूर्ण या सत्तावादी न लगे, सर्वदलीय सहमति बनाना आवश्यक होगा।
- नागरिक समाज, विधि विशेषज्ञों और संवैधानिक विद्वानों के साथ संवाद करके विधेयक का अधिक संतुलित संस्करण तैयार किया जा सकता है।
निष्कर्ष
- एक सौ तीसवाँ संशोधन विधेयक संवैधानिक नैतिकता और मंत्रिस्तरीय जवाबदेही को बनाए रखने का प्रयास करता है, लेकिन यह उचित प्रक्रिया, सत्ता के दुरुपयोग एवं कानून प्रवर्तन के राजनीतिकरण को लेकर गंभीर चिंताएँ भी उठाता है।
- मनमाने ढंग से गिरफ्तारी और लंबे समय तक हिरासत में रखने के विरुद्ध सुदृढ़ सुरक्षा उपायों के बिना, प्रस्तावित संशोधन उन लोकतांत्रिक सिद्धांतों को ही नष्ट कर सकते हैं जिन्हें वे सुदृढ़ करना चाहते हैं।
| दैनिक मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न [प्रश्न] संविधान (एक सौ तीसवां संशोधन) विधेयक, 2025 का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। क्या गिरफ्तारी पर मंत्रियों को स्वचालित रूप से हटाने का प्रावधान लोकतांत्रिक जवाबदेही को मजबूत करता है या उचित प्रक्रिया तथा संघवाद के लिए जोखिम उत्पन्न करता है? |
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