पाठ्यक्रम: GS3/ अर्थव्यवस्था
संदर्भ
- 5 जुलाई 2025 को भारत ने अपने सहकारिता मंत्रालय की चौथी वर्षगांठ और अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता दिवस दोनों को एक साथ मनाया, जो कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता वर्ष के दौरान मनाया गया।
- यह संयोग भारत के विकास एजेंडे में सहकारी मॉडल की नई प्रासंगिकता और रणनीतिक महत्व को रेखांकित करता है, विशेष रूप से आत्मनिर्भर भारत की दृष्टि के संदर्भ में।
वर्तमान प्रासंगिकता
- भारत में सहकारी आंदोलन विश्व का सबसे बड़ा है, जिसमें 8.4 लाख से अधिक पंजीकृत सहकारी संस्थाएं और लगभग 29 करोड़ सदस्य हैं, जो देश की सामाजिक-आर्थिक संरचना में इसकी गहरी जड़ों को दर्शाता है।
- 2025 का अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता दिवस “सहकारिता: एक बेहतर विश्व के लिए समावेशी और सतत समाधान” विषय पर केंद्रित है, जो आर्थिक असमानता, जलवायु परिवर्तन और केंद्रीकरण जैसी चुनौतियों के समाधान में इस क्षेत्र की भूमिका को उजागर करता है।
- जुलाई 2021 में सहकारिता मंत्रालय की स्थापना एक निर्णायक नीतिगत बदलाव का संकेत थी, जिसका उद्देश्य जमीनी स्तर पर सहकारिताओं को सशक्त बनाना, नियामक प्रक्रियाओं को सरल बनाना और उन्हें समावेशी विकास के इंजन में परिवर्तित करना था।
दार्शनिक आधार
- भारतीय सहकारिताएं गांधीवादी और लोहियावादी आदर्शों—स्व-सहायता, स्थानीय लोकतंत्र और स्वराज—पर आधारित हैं, जो सामुदायिक भावना, पारस्परिक उत्तरदायित्व और संसाधनों के समान स्वामित्व को महत्व देती हैं।
- ये न केवल सरकारी योजनाओं और निजी कंपनियों के केंद्रीकृत मॉडल का संतुलन प्रदान करती हैं, बल्कि लोकतांत्रिक स्वामित्व, स्थानीय भागीदारी और संसाधनों की स्थानीय गतिशीलता को भी बढ़ावा देती हैं।
संरचनात्मक उपस्थिति और क्षेत्रीय विस्तार
- सहकारिताएं विभिन्न क्षेत्रों में फैली हुई हैं: लगभग 20% बैंकिंग/क्रेडिट में हैं, जबकि शेष डेयरी, चीनी, कृषि प्रसंस्करण, आवास, गोदाम आदि में कार्यरत हैं।
- अमूल, इफको, कृभको और नैफेड जैसे प्रमुख खिलाड़ी सफल सहकारी व्यापार मॉडल के उदाहरण हैं, जो विशेष रूप से डेयरी और उर्वरक क्षेत्रों में आपूर्ति श्रृंखला को संक्षिप्त करते हैं और उत्पादकों को बेहतर मूल्य दिलाते हैं।
- सहकारिताएं भारत की चीनी उत्पादन का 35%, उर्वरक वितरण का 30% एवं अल्पकालिक कृषि ऋण का 15% योगदान देती हैं, तथा विशेष रूप से ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण रोजगार सृजन करती हैं।
सहकारिताएं MSMEs की क्षमता को कैसे बढ़ा सकती हैं?
- संसाधनों का एकत्रीकरण और साझा अवसंरचना: सहकारिताएं कारीगरों, किसानों एवं लघु उत्पादकों द्वारा संचालित MSMEs को उपकरण, तकनीक और कार्यस्थल जैसे संसाधनों को साझा करने में सक्षम बनाती हैं।
- इससे लागत घटती है, दक्षता बढ़ती है और पैमाने की अर्थव्यवस्था का लाभ मिलता है।
- वित्त तक पहुंच: सामूहिक रूप से कार्य करने के कारण, सहकारी ढांचे में MSMEs को ऋण, बचत और बीमा जैसी वित्तीय सेवाएं अधिक आसानी से उपलब्ध होती हैं।
- बाजार से जुड़ाव और ब्रांडिंग: सहकारिताएं सामूहिक ब्रांडिंग, गुणवत्ता प्रमाणन और ई-कॉमर्स एकीकरण के माध्यम से MSMEs को व्यापक बाजारों तक पहुंचने में सहायता करती हैं।
- उदाहरण: अमूल सहकारी ने हजारों छोटे डेयरी उत्पादकों को एकीकृत ब्रांड के तहत राष्ट्रीय स्तर पर विपणन करने में सक्षम बनाया।
- कौशल विकास और नवाचार: सहकारिताएं प्रशिक्षण, ज्ञान साझा करने और नवाचार के लिए सहयोगी वातावरण प्रदान करती हैं।
- 2023 में शुरू की गई पीएम विश्वकर्मा योजना पारंपरिक कारीगरों को कौशल उन्नयन, वित्तीय पहुंच और बाजार से जोड़ने के लिए डिज़ाइन की गई है, जिसमें सहकारिताएं उपकरण, ऋण, ब्रांडिंग और डिजिटल प्लेटफॉर्म तक सामूहिक पहुंच का पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करती हैं।
- सामूहिक सौदेबाज़ी और नीति-हितरक्षा: सहकारिताएं नीति मंचों में MSMEs की आवाज़ बनती हैं, जिससे उनकी आवश्यकताओं को सरकारी योजनाओं और विनियमों में शामिल किया जा सके।
- समावेशी और सतत विकास: सहकारी मॉडल आत्मनिर्भरता, रोजगार सृजन एवं बुनियादी भागीदारी को बढ़ावा देता है, जो समावेशी और सतत आर्थिक विकास के लिए आवश्यक हैं।
- जोखिम न्यूनीकरण: सहकारिताएं लाभ एवं जोखिम को साझा करके MSMEs को बाज़ार के उतार-चढ़ाव और आर्थिक आघातों से अधिक लचीला बनाती हैं।
भारत में सहकारिताओं और MSMEs के सामने चुनौतियां
- कमज़ोर अवसंरचना: विशेष रूप से ग्रामीण स्तर की सहकारिताओं में भौतिक और डिजिटल अवसंरचना की कमी है, जिससे उनकी कार्यक्षमता एवं बाज़ार पहुंच सीमित होती है।
- सरकारी हस्तक्षेप और पुराने कानून: अत्यधिक विनियमन और राजनीतिक हस्तक्षेप से सहकारिताओं की स्वायत्तता, पारदर्शिता एवं लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली प्रभावित होती है।
- कुप्रबंधन और भाई-भतीजावाद: कमजोर शासन, कुप्रबंधन एवं पक्षपातपूर्ण नियुक्तियों ने विश्वास को कमजोर किया है और पेशेवर विकास को बाधित किया है।
- सामाजिक-आर्थिक असमानताएं और बहिष्करण: संरचनात्मक असमानताएं बनी हुई हैं, जिससे वंचित समुदायों की भागीदारी और नेतृत्व में कमी देखी जाती है।
- डिजिटल और वित्तीय बहिष्करण: कई ग्रामीण सहकारिताएं और MSMEs डिजिटल साक्षरता, ई-पेमेंट क्षमता या ऑनलाइन बाज़ारों तक पहुंच से वंचित हैं।
- उदाहरण: जागरूकता और मार्गदर्शन की कमी के कारण उद्यम पंजीकरण या GeM (सरकारी ई-मार्केटप्लेस) जैसे डिजिटल पोर्टलों से जुड़ाव नहीं हो पाता।
- सरकारी योजनाओं की कम जानकारी: पीएमईजीपी, पीएम विश्वकर्मा, SFURTI और मुद्रा जैसी प्रमुख योजनाएं भी जमीनी स्तर पर सूचना, शिक्षा एवं संचार (IEC) की कमी के कारण कम उपयोग में आती हैं।
आगे की राह
- सहकारी शासन और स्वायत्तता में सुधार: सभी पंजीकृत सहकारिताओं में समयबद्ध और पारदर्शी चुनाव सुनिश्चित किए जाएं।
- ई-सहकारिता मिशन मोड प्रोजेक्ट के अंतर्गत सहकारी रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण किया जाए।
- क्लस्टर आधारित विकास मॉडल: क्लस्टर विकास कार्यक्रम (CDP) के अंतर्गत ब्लॉक/जिला स्तर पर गतिविधि-विशिष्ट सहकारिताओं को बढ़ावा दिया जाए।
- पीएम विश्वकर्मा लाभार्थियों को सहकारी क्लस्टरों से जोड़ना: जैसे:
- तिरुपुर में दर्जी क्लस्टर
- खुर्जा में मिट्टी के बर्तन
- वाराणसी में हथकरघा
- वित्तीय साधनों के माध्यम से ऋण तक पहुंच: PACS और कृषि सहकारिताओं के लिए नाबार्ड पुनर्वित्त योजनाओं को मजबूत किया जाए।
- MSMEs से जुड़ी सहकारिताओं के लिए सहकारी क्रेडिट गारंटी फंड (CCGF) की स्थापना की जाए।
निष्कर्ष: विकसित भारत@2047 की दृष्टि में सहकारिताएं
- जैसे-जैसे भारत 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है, सहकारिताएं लोकतांत्रिक, विकेंद्रीकृत और समावेशी विकास की प्रमुख प्रेरक शक्ति के रूप में उभर रही हैं।
- अब इन्हें केवल विरासत संस्थाओं के रूप में नहीं, बल्कि सतत, सामुदायिक नेतृत्व वाले विकास के वाहक के रूप में देखा जा रहा है, जो पारंपरिक ज्ञान, आधुनिक व्यापारिक प्रथाओं और सामाजिक न्याय को भारत के आर्थिक परिवर्तन के केंद्र में ला सकती हैं।
| दैनिक मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न [प्रश्न] मूल्यांकन करें कि पीएम विश्वकर्मा और सहकारी समितियों जैसी योजनाओं का अभिसरण समावेशी एवं सतत विकास प्राप्त करने में कैसे सहायता कर सकता है। |
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