पाठ्यक्रम: GS2/राजव्यवस्था एवं शासन
संदर्भ
- भारत की विधिक सहायता प्रणाली, जो देश की लगभग 80% जनसंख्या को सेवा देने के लिए अनिवार्य है, अभी भी संसाधनों एवं क्षमता की दृष्टि से कमजोर और अल्प-वित्तपोषित है।
भारत की विधिक सहायता प्रणाली
- विधिक सहायता कोई विशेषाधिकार नहीं बल्कि एक संवैधानिक वचन है।
- अनुच्छेद 39A [42वें संशोधन, 1976 द्वारा प्रस्तुत]: यह राज्य को निर्देश देता है कि वह समान अवसर के आधार पर न्याय को बढ़ावा देने के लिए विधिक प्रणाली सुनिश्चित करे, और आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के कारण न्याय से वंचित होने से बचाने हेतु मुफ्त विधिक सहायता प्रदान करे।
- अनुच्छेद 21: सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन के अधिकार की व्याख्या करते हुए उसमें विधिक प्रतिनिधित्व और त्वरित न्यायालयीय कार्यवाही के अधिकार को सम्मिलित किया (खत्री द्वितीय बनाम बिहार राज्य, 1981)।
- प्रस्तावना: सभी नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की सुरक्षा का संकल्प — यही विधिक सहायता का दार्शनिक आधार है।
वैधानिक ढांचा
- विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987: यह अधिनियम राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA), राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (SLSAs), ज़िला विधिक सेवा प्राधिकरण (DLSAs), और तालुका विधिक सेवा समितियों (TLSCs) की स्थापना करता है, जो मुफ्त विधिक सेवाएँ प्रदान करते हैं।
- लक्षित लाभार्थी:अधिनियम की धारा 12 के अनुसार, विधिक सहायता महिलाओं, बच्चों, अनुसूचित जाति/जनजाति समुदायों, मानव तस्करी के पीड़ितों, दिव्यांग व्यक्तियों, हिरासत में रह रहे या गरीबी में जीवन यापन कर रहे लोगों को उपलब्ध कराई जाती है।
- यह प्राधिकरणों को लोक अदालतों, विधिक साक्षरता शिविरों और सहायता कार्यक्रमों के आयोजन के अधिकार देता है।
संवैधानिक और वैधानिक दृष्टिकोण को साकार करने में चुनौतियाँ
- सीमित पहुंच, बावजूद बढ़ते आँकड़ों के: अप्रैल 2023 से मार्च 2024 के बीच मात्र 15.50 लाख लोगों ने विधिक सहायता प्राप्त की — पिछले वर्ष के 12.14 लाख की तुलना में 28% वृद्धि।
- ये सेवाएँ स्थानीय न्यायालयों, जेलों, किशोर न्याय बोर्डों से जुड़ी फ्रंट ऑफिसों और ग्रामीण क्षेत्रों में विधिक सहायता क्लीनिकों के माध्यम से उपलब्ध कराई जाती हैं।
- भारत न्याय रिपोर्ट 2025 के अनुसार, हर 163 गांवों पर मात्र एक विधिक सेवा क्लिनिक है।
- अत्यल्प बजट आवंटन: विधिक सहायता को कुल न्यायिक बजट का 1% से भी कम हिस्सा मिलता है।
- 2017–18 में ₹601 करोड़ से बढ़कर 2022–23 में ₹1,086 करोड़ हो गया (25 राज्यों में), लेकिन यह वृद्धि पूरी तरह राज्य स्तरीय आवंटन से आई — जो ₹394 करोड़ से ₹866 करोड़ हो गई।
- NALSA के फंड ₹207 करोड़ से घटकर ₹169 करोड़ हो गए और उपयोग दर 75% से घटकर 59% हो गई।
- NALSA मैनुअल (2023) के अनुसार, व्यय सीमा इस प्रकार है:
- 50%: विधिक सहायता और परामर्श
- 25%: जागरूकता और आउटरीच
- 25%: वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) और मध्यस्थता
- पहुंच की सीमाएँ: उक्त अवधि में केवल 15.5 लाख लोगों को विधिक सहायता मिली — 80% जनसंख्या की आवश्यकता से काफी कम।
- प्रति 163 गांव पर केवल एक विधिक सहायता क्लिनिक दर्शाता है कि ग्रामीण पहुँच बेहद सीमित है।
- मानव संसाधन की कमी:2019 से 2024 के बीच पैरा-लीगल वॉलंटियर्स (PLVs) की संख्या प्रति लाख जनसंख्या में 5.7 से घटकर 3.1 हो गई — 38% की गिरावट।
- हालांकि 2023–24 में 53,000 PLVs प्रशिक्षित हुए, केवल 14,000 तैनात किए गए — भारी अव्यवस्था।
- अनेक राज्यों में PLVs को न्यूनतम वेतन से भी कम भुगतान मिलता है, जिससे भर्ती और बनाए रखना कठिन होता है।
- व्यय में ठहराव और असमानता: 2019 से भारत में प्रति व्यक्ति विधिक सहायता खर्च ₹3 से बढ़कर ₹7 हो गया।
- 2022–23 में हरियाणा ₹16 के साथ अग्रणी रहा, जबकि बिहार (₹3) और पश्चिम बंगाल (₹2) राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे रहे।
- न्यून और समायोजित न किए गए मानदेय:
- 22 राज्य ₹500
- 3 राज्य ₹400
- गुजरात, मेघालय और मिज़ोरम मात्र ₹250
- केरल ₹750 के साथ सबसे अधिक दैनिक मानदेय देता है।
- विधिक सहायता सेल्स (कानून महाविद्यालयों में): सर्वोच्च न्यायालय के एक अध्ययन के अनुसार केवल 11% विधि कॉलेजों में सक्रिय विधिक सहायता सेल्स हैं।
- चुनौतियाँ — निगरानी की कमी, वित्तीय संसाधनों की सीमाएँ, और ठोस मामलों में जुड़ाव का अभाव।
संवैधानिक वचन को सशक्त करना
- विधिक सहायता रक्षा वकील योजना (LADC): NALSA ने 2022 में LADC योजना शुरू की ताकि अभियुक्तों को समर्पित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जा सके और नियुक्त वकील प्रणाली पर भार कम किया जा सके।
- यह अब 670 में से 610 जिलों में कार्यरत है। 2023–24 में इसे ₹200 करोड़ का पूर्ण आवंटन मिला, लेकिन 2024–25 में घटकर ₹147.9 करोड़ रह गया।
- अनुच्छेद 21 और 39A की संवैधानिक भावना को बनाए रखना: वित्तीय निवेश बढ़ाएं और आवश्यकता-आधारित लचीला आवंटन सुनिश्चित करें।
- मोबाइल क्लिनिक और डिजिटल प्लेटफॉर्म द्वारा पहुंच बढ़ाएं।
- PLVs और अधिवक्ताओं को उचित मानदेय एवं प्रशिक्षण प्रदान करें।
- विधि पाठ्यक्रमों में विधिक सहायता को शामिल करें ताकि व्यावहारिक शिक्षा और सामुदायिक सेवा को बढ़ावा मिले।
- कानूनों की भाषा को सरल बनाएं ताकि आम जनता के लिए सुलभ हों।
निष्कर्ष
- भारत की विधिक सहायता प्रणाली में अपार संभावनाएँ हैं, लेकिन संरचनात्मक और संसाधनगत सीमाओं से बाधित है।
- इस मंशा को वास्तविक प्रभाव में बदलने के लिए, अधिक वित्तीय निवेश, संसाधनों की तैनाती और प्रशासनिक स्वायत्तता अनिवार्य है।
- अन्यथा, संविधान में निहित “सबके लिए सुलभ न्याय” का वादा अधूरा ही रह जाएगा।
| दैनिक मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न [प्रश्न] भारत की विधिक सहायता प्रणाली के संवैधानिक अधिदेश को पूरा करने में आने वाली चुनौतियों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। इसकी क्षमता को बढ़ाने से न्याय तक समान पहुँच में कैसे योगदान हो सकता है? |
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