न्यायाधीशों को जवाबदेह/उत्तरदायी बनाए रखने की चुनौतियाँ

पाठ्यक्रम: GS2/भारतीय राजनीति; न्यायपालिका

संदर्भ

  • भारत में न्यायाधीशों को जवाबदेह बनाना चुनौतियों का एक अद्वितीय समूह प्रस्तुत करता है, जो संवैधानिक ढांचे और न्यायिक निगरानी के लिए वर्तमान तंत्र में निहित है।
    • इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शेखर कुमार यादव से जुड़े हालिया विवाद ने एक बार फिर इन कठिनाइयों को प्रकट किया है।

न्यायिक उत्तरदायित्व के लिए वर्तमान तंत्र

  • भारत में न्यायिक जवाबदेही के लिए वर्तमान तंत्र न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 द्वारा शासित है। इसमें प्रावधान है कि किसी न्यायाधीश को केवल ‘सिद्ध दुर्व्यवहार या अक्षमता’ के आधार पर ही हटाया जा सकता है, जिसका निर्धारण तीन सदस्यीय समिति द्वारा किया जाना चाहिए।
    • जांच समिति में एक उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश, एक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा एक प्रतिष्ठित न्यायविद सम्मिलित होंगे।
  • यह समिति एक ट्रायल कोर्ट की तरह कार्य करती है, लेकिन इसका गठन तभी किया जाता है जब लोकसभा या राज्यसभा में महाभियोग प्रस्ताव सफल हो जाए।
  • प्रस्ताव को सदन के पीठासीन अधिकारी – लोकसभा के मामले में अध्यक्ष, या राज्यसभा के मामले में उपराष्ट्रपति/सभापति द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए।
न्यायाधीशों को हटाने की व्यवस्था
– भारत के संविधान में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को क्रमशः अनुच्छेद 124(4) और अनुच्छेद 217 के अंतर्गत ‘सिद्ध कदाचार या अक्षमता’ के आधार पर हटाने का प्रावधान है।
प्रक्रिया:
महाभियोग की शुरुआत: निष्कासन के लिए प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में विशेष बहुमत (कुल सदस्यता का ⅓वां भाग तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का ⅓वां भाग) द्वारा समर्थित होना चाहिए।
राष्ट्रपति की स्वीकृति: प्रस्ताव पारित होने के पश्चात्, भारत के राष्ट्रपति न्यायाधीश को हटाने का आदेश जारी करते हैं।संसद कानून द्वारा किसी अभिभाषण की प्रस्तुति तथा किसी न्यायाधीश के दुर्व्यवहार या अक्षमता की जांच और प्रमाण के लिए प्रक्रिया को विनियमित कर सकती है।
क्या आप जानते हैं?
– न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 के अंतर्गत गठित समिति द्वारा अब तक केवल दो न्यायाधीशों को ‘दुर्व्यवहार’ का दोषी पाया गया है।
– पहले मामले में उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश वी. रामास्वामी (1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक के प्रारंभ में) सम्मिलित थे, जिन्हें अपने सरकारी आवास पर फिजूलखर्ची करने का दोषी पाया गया था।
– फिजूलखर्ची(EXTRAVAGANT SPENDING) और पद के दुरुपयोग का दोषी पाए जाने के बावजूद संसद में उनके विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव विफल हो गया।
– दूसरे नंबर पर न्यायमूर्ति सौमित्र सेन थे, जिन्हें न्यायालय द्वारा नियुक्त रिसीवर के रूप में कार्य करते हुए 33.23 लाख रुपये की धोखाधड़ी का दोषी पाया गया।
– इसने वर्तमान प्रणाली की सीमाओं को रेखांकित किया और 1997 में उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्कथन’ को अपनाया गया, जो न्यायाधीशों के लिए आचार संहिता के रूप में कार्य करता है।

वर्तमान प्रणाली में चुनौतियाँ

  • जटिल महाभियोग प्रक्रिया: पद से हटाने के लिए लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत या राज्यसभा में पूर्ण बहुमत की आवश्यकता होती है।
    • इससे सर्वसम्मति प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है, विशेषकर राजनीतिक रूप से व्यस्त परिवेश में।
  • प्रतिरक्षा: भारत में न्यायाधीशों को महत्वपूर्ण प्रतिरक्षा प्राप्त है तथा वे औपचारिक कार्यवाही से पहले त्यागपत्र देकर जवाबदेही से बच सकते हैं।
    • यह प्रतिरक्षा निर्वाचित अधिकारियों को मिलने वाली छूट से अधिक है, जो कदाचार के लिए न्यायाधीशों को उत्तरदायी ठहराने की प्रणाली की क्षमता में अंतर को प्रकट करती है।
  • पारदर्शिता का अभाव: न्यायपालिका बहुत अधिक अस्पष्टता के साथ कार्य करती है, विशेषकर कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण में। इससे जनता का विश्वास कम होता है।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप: ऐसे विभिन्न उदाहरण हैं जहां राजनीतिक दबाव न्यायिक निर्णयों को प्रभावित करते हैं, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता से समझौता होता है।

प्रस्तावित सुधार

  • न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक: न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक, जो 2014 में समाप्त हो गया था, को पुनः प्रस्तुत करने और उसमें संशोधन करने से न्यायिक कदाचार से निपटने के लिए एक व्यापक रूपरेखा उपलब्ध हो सकती है।
    • इसमें न्यायाधीशों द्वारा अपनी सम्पत्ति की घोषणा के लिए तंत्र तथा राष्ट्रीय न्यायिक निरीक्षण समिति की स्थापना का प्रस्ताव किया गया है।
  • कॉलेजियम प्रणाली को सुदृढ़ करना: न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण में अधिक पारदर्शिता एवं जवाबदेही सम्मिलित करने के लिए कॉलेजियम प्रणाली में सुधार करना महत्वपूर्ण है।
    • इसमें न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरणों के मानदंडों और कारणों को सार्वजनिक करना सम्मिलित हो सकता है।
  • स्वतंत्र निरीक्षण निकाय: न्यायिक आचरण की निगरानी एवं न्यायाधीशों के विरुद्ध शिकायतों की जांच के लिए स्वतंत्र निकायों की स्थापना से पूर्वाग्रहों को कम करने और निष्पक्षता सुनिश्चित करने में सहायता मिल सकती है।
  • उन्नत पारदर्शिता: न्यायिक कार्यवाही और निर्णयों में पारदर्शिता बढ़ाने के उपायों को लागू करने से जनता का विश्वास पुनर्स्थापित हो सकता है।
    • इसमें न्यायालयी कार्यवाही और निर्णयों को जनता के लिए अधिक सुलभ बनाना सम्मिलित  है।

आगे की राह

  • आंतरिक तंत्र को सुदृढ़ करना: न्यायपालिका के अंदर एक अधिक प्रभावी आंतरिक निरीक्षण निकाय की स्थापना करना जो न्यायाधीशों के विरुद्ध शिकायतों की जांच कर सके और उन पर कार्रवाई कर सके।
  • नियुक्ति में पारदर्शिता: अधिक खुली और भागीदारीपूर्ण प्रक्रिया के माध्यम से न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं स्थानांतरण में अधिक पारदर्शिता सुनिश्चित करना।
    • न्यायिक जवाबदेही अभियान, जैसे कि न्यायिक जवाबदेही मंच (FJA), न्यायाधीश के त्यागपत्र के पश्चात् भी न्यायिक कदाचार की निरंतर जांच का समर्थन करते हैं। ये अभियान इस बात पर बल देते हैं कि महाभियोग का तात्पर्य सिर्फ पद से हटाना नहीं है, बल्कि न्यायिक प्रणाली की अखंडता को पुनर्स्थापित करना है।
  • सार्वजनिक प्रकटीकरण: पारदर्शिता और सार्वजनिक विश्वास बढ़ाने के लिए न्यायाधीशों की परिसंपत्तियों एवं देनदारियों का प्रकटीकरण अनिवार्य करना।
  • न्यायिक सुधार: व्यापक न्यायिक सुधारों को लागू करना जो न्याय वितरण प्रणाली में देरी को दूर करेंगे और न्यायपालिका की समग्र दक्षता में सुधार करेंगे।

निष्कर्ष

  • भारतीय न्यायपालिका में जवाबदेही तय करना इस महत्वपूर्ण संस्था की अखंडता और विश्वास को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। जबकि वर्तमान तंत्र एक आधार प्रदान करते हैं, पारदर्शिता, राजनीतिक हस्तक्षेप एवं बोझिल महाभियोग प्रक्रिया की चुनौतियों का समाधान करने के लिए महत्वपूर्ण सुधार आवश्यक हैं।
  • व्यापक सुधारों को अपनाकर भारत यह सुनिश्चित कर सकता है कि उसकी न्यायपालिका स्वतंत्र, निष्पक्ष और अपने लोगों के प्रति जवाबदेह बनी रहे।

Source: TH

 

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