पाठ्यक्रम: GS2/ राजव्यवस्था और शासन
संदर्भ
- भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में यह माना है कि अनुच्छेद 25 के अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता और अनुच्छेद 21 के अंतर्गत निजता का अधिकार गहराई से परस्पर जुड़े हुए हैं।
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
- यह निर्णय उत्तर प्रदेश धर्मांतरण प्रतिषेध अधिनियम की विभिन्न धाराओं को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं के जवाब में आया, जिसमें व्यक्तिगत स्वायत्तता और राज्य नियंत्रण के बीच संवैधानिक संतुलन को उजागर किया गया।
- न्यायालय ने कहा कि निजता “पूर्व शर्त” है धार्मिक स्वतंत्रता के प्रयोग की, क्योंकि व्यक्तिगत आस्था के विकल्प आंतरिक विश्वास और अंतःकरण से जुड़े होते हैं।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि व्यक्तिगत विश्वास प्रणाली में राज्य का हस्तक्षेप, जैसे धर्मांतरण की अनिवार्य सूचना या पूर्व राज्य अनुमोदन, गोपनीयता और धार्मिक स्वतंत्रता दोनों का उल्लंघन कर सकता है।
निर्णय का महत्व
- यह निर्णय कमजोर व्यक्तियों को जबरदस्ती से बचाने और स्वैच्छिक आस्था परिवर्तन का सम्मान करने के बीच संतुलन की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
- यह सहिष्णुता को बढ़ावा देता है, यह स्वीकार करते हुए कि विश्वास व्यक्तिगत होता है और राज्य की निगरानी से परे है।
- यह अनुच्छेद 21 के अंतर्गत “व्यक्तिगत स्वतंत्रता के क्षेत्र” के विस्तार की दिशा में सर्वोच्च न्यायालय की निरंतरता को दर्शाता है।
- न्यायालय की तर्क प्रणाली शफीन जहां बनाम असोकन के.एम. (2018) के साथ सामंजस्यशील है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने विश्वास और विवाह के मामलों में व्यक्ति की स्वायत्तता को बरकरार रखा था, यह स्वीकार करते हुए कि ऐसे विकल्प व्यक्तिगत स्वतंत्रता के केंद्र में हैं।
संवैधानिक प्रावधान
- अनुच्छेद 25(1): सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म को स्वतंत्र रूप से स्वीकारने, पालन करने तथा प्रचार करने का अधिकार प्रदान करता है, बशर्ते कि यह सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता एवं स्वास्थ्य के अधीन हो।
- अनुच्छेद 25(2)(b): राज्य को सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता या स्वास्थ्य के हित में धार्मिक धर्मांतरण को नियंत्रित या प्रतिबंधित करने की अनुमति देता है, लेकिन स्वैच्छिक व्यक्तिगत आस्था परिवर्तन में हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देता।
- अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार सुनिश्चित करता है, जिसे न्यायिक रूप से गोपनीयता तक विस्तारित किया गया है, जिसमें न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ, 2017 में विचार, विश्वास एवं अंतःकरण की आंतरिक स्वतंत्रता शामिल है। अनुच्छेद 19(1)(a): भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है, जिसमें अपनी धार्मिक पहचान को व्यक्त करने या न करने का अधिकार शामिल है।
निष्कर्ष
- यह निर्णय धार्मिक स्वतंत्रता के दायरे को पुनर्परिभाषित करता है, यह स्वीकार करते हुए कि विश्वास और गोपनीयता संविधान के एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
- यह उस सिद्धांत को सुदृढ़ करता है कि अंतःकरण के मामलों में व्यक्तिगत स्वायत्तता को राज्य नियंत्रण पर वरीयता दी जानी चाहिए।
- यह ऐसे कानूनों और नीतियों की मांग करता है जो नागरिकों को जबरदस्ती से बचाते हुए विश्वास एवं गरिमा में निहित व्यक्तिगत विकल्पों का सम्मान करें।
Source: TOI
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