भारत के जलवायु वित्त वर्गीकरण का प्रारूप ढांचा

पाठ्यक्रम: GS2/शासन नीति और हस्तक्षेप; GS3/पर्यावरण

संदर्भ

  • वित्त मंत्रालय ने भारत की जलवायु वित्त वर्गीकरण प्रणाली (Climate Finance Taxonomy) का प्रारूप ढांचा जारी किया है, जिसका उद्देश्य जलवायु-संरेखित निवेशों के लिए एक एकीकृत वर्गीकरण प्रणाली बनाना है, जिससे पारदर्शिता, विश्वसनीयता और राष्ट्रीय व वैश्विक जलवायु लक्ष्यों के साथ संरेखण सुनिश्चित हो सके।

जलवायु वर्गीकरण प्रणाली क्या है?

  • जलवायु वर्गीकरण प्रणाली एक ऐसी संरचना है जो यह पहचानती है कि कौन-सी आर्थिक गतिविधियाँ जलवायु शमन (mitigation), अनुकूलन (adaptation), या संक्रमण (transition) में योगदान देती हैं। यह प्रणाली निम्नलिखित में सहायता करती है:
    • निवेशकों को परियोजनाओं की हरित साख का मूल्यांकन करने में;
    • सरकारों को सब्सिडी और प्रोत्साहन सही दिशा में निर्देशित करने में;
    • नियामकों को अनुपालन की निगरानी और ग्रीनवॉशिंग रोकने में।

भारत की जलवायु वित्त वर्गीकरण प्रणाली का ढांचा

  • लक्ष्य: भारत की वर्गीकरण प्रणाली को ग्रीन बॉन्ड, कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना और SEBI के ESG मानदंडों जैसे उपकरणों के पूरक के रूप में डिज़ाइन किया गया है, जिससे एक एकीकृत जलवायु वित्त पारिस्थितिकी तंत्र तैयार हो सके। इसके उद्देश्य हैं:
    • विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु-संरेखित गतिविधियों को परिभाषित करना;
    • सार्वजनिक और निजी निवेश को कम-कार्बन और जलवायु-लचीले विकास की ओर निर्देशित करना;
    • स्पष्ट पात्रता मानदंड स्थापित कर ग्रीनवॉशिंग को रोकना;
    • पेरिस समझौते के अंतर्गत भारत की राष्ट्रीय रूप से निर्धारित योगदान (NDCs) का समर्थन करना।
  • क्षेत्रीय कवरेज
    • प्रत्येक क्षेत्र में शमन, अनुकूलन और संक्रमण गतिविधियों के लिए विशिष्ट मानदंड शामिल हैं:
    • ऊर्जा: नवीकरणीय ऊर्जा, ग्रिड आधुनिकीकरण, ऊर्जा भंडारण
    • गतिशीलता: इलेक्ट्रिक वाहन, सार्वजनिक परिवहन, ईंधन दक्षता
    • भवन: हरित निर्माण, ऊर्जा-कुशल पुनरुद्धार
    • कृषि और जल सुरक्षा: जलवायु-स्मार्ट कृषि, सिंचाई दक्षता, जल संरक्षण
    • कठिन-से-नियंत्रित क्षेत्र: इस्पात, सीमेंट, रसायन में कम-कार्बन तकनीकें
भारत की जलवायु वित्त वर्गीकरण प्रणाली का ढांचा

वर्गीकरण दृष्टिकोण (तीन श्रेणियाँ)

  • शमन (Mitigation): वे परियोजनाएँ जो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम या रोकती हैं
  • अनुकूलन (Adaptation): वे पहलें जो जलवायु प्रभावों के प्रति लचीलापन बढ़ाती हैं
  • संक्रमण (Transition): वे उपाय जो उच्च-उत्सर्जन क्षेत्रों को स्थायित्व की ओर ले जाते हैं

भारत की जलवायु वित्त वर्गीकरण प्रणाली में प्रमुख चिंताएँ

  • स्वदेशी संदर्भ की कमी: भारत का प्रारूप मुख्यतः यूरोपीय संघ जैसी अंतरराष्ट्रीय प्रणालियों से लिया गया है, जिससे भारत की विशिष्ट जलवायु संवेदनशीलताओं और विकास प्राथमिकताओं की उपेक्षा होती है।
    • यह अनौपचारिक क्षेत्रों, पारंपरिक प्रथाओं और उत्सर्जन व जलवायु जोखिमों में क्षेत्रीय असमानताओं को प्रतिबिंबित नहीं करता।
  • क्षेत्रीय फोकस का भ्रम: ऊर्जा उत्पादन, परिवहन, रसायन, सीमेंट और रियल एस्टेट जैसे उच्च-उत्सर्जन क्षेत्रों को पर्याप्त रूप से शामिल नहीं किया गया है।
    •  वहीं, कृषि, खाद्य और जल सुरक्षा जैसे निम्न-उत्सर्जन क्षेत्रों को बिना स्पष्ट औचित्य के शामिल किया गया है, जिससे जलवायु वित्त के गलत दिशा में जाने की आशंका है।
  • स्पष्ट मापदंडों और मानकों की अनुपस्थिति: वर्गीकरण प्रणाली में क्षेत्रों के चयन और उत्सर्जन कटौती के लिए सीमा निर्धारण हेतु वैज्ञानिक, डेटा-आधारित तर्कों की कमी है।
    • ‘जलवायु-अनुकूल तकनीकें’ और ‘सार्वजनिक परामर्श’ जैसे शब्द अस्पष्ट एवं अपरिभाषित हैं, जिससे पारदर्शिता और जवाबदेही सीमित होती है।
  • कमज़ोर शासन संरचना: कार्यान्वयन, समीक्षा या प्रवर्तन के लिए कोई संस्थागत तंत्र परिभाषित नहीं है — जो भारत की संघीय संरचना को देखते हुए विशेष रूप से समस्याग्रस्त है।
    • यह ढांचा यह स्पष्ट नहीं करता कि राज्य सरकारें, स्थानीय निकाय या नागरिक समाज निर्णय-प्रक्रिया में कैसे शामिल होंगे।
  • समानता और न्याय की अनदेखी: छोटे किसान, निम्न-आय वाले परिवार और आदिवासी समूह जैसे संवेदनशील समुदायों को जलवायु वित्त आवंटन में प्राथमिकता नहीं दी गई है।
    • प्रारूप श्रम अधिकारों, मानवाधिकारों और वित्त तक समान पहुंच जैसे सामाजिक सुरक्षा उपायों की उपेक्षा करता है।
  • उच्च तकनीकी समाधानों पर अत्यधिक बल: वर्गीकरण प्रणाली उन्नत तकनीकों को बढ़ावा देती है जबकि कम लागत, स्वदेशी और सामुदायिक-आधारित जलवायु समाधानों को नज़रअंदाज़ करती है।
    • इससे MSMEs और अनौपचारिक क्षेत्रों के बाहर होने का जोखिम है, जो पूंजी और तकनीकी विशेषज्ञता तक पहुंच नहीं रखते।
  • भारत के NDCs के साथ समयरेखा का असंतुलन: प्रारूप विभिन्न क्षेत्रों के लिए कोई विशिष्ट समयरेखा या संक्रमण मार्ग निर्धारित नहीं करता, जबकि भारत के नेट ज़ीरो 2070 और NDC लक्ष्यों का उल्लेख किया गया है।
    • यह राज्यों या क्षेत्रों की उत्सर्जन हिस्सेदारी के आधार पर जिम्मेदारियों का अंतर नहीं करता।

सुधार के लिए अनुशंसाएँ

  • कानूनी संरेखण: वर्गीकरण प्रणाली को ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, SEBI विनियमों और पेरिस समझौते (अनुच्छेद 6.4) जैसे अंतरराष्ट्रीय ढाँचों के साथ समन्वित करना आवश्यक है।
  • विषयवस्तु की स्पष्टता: परिभाषाएँ तकनीकी रूप से सटीक और MSMEs, अनौपचारिक क्षेत्रों व गैर-विशेषज्ञों के लिए सुलभ होनी चाहिए।
    • GHG कटौती लक्ष्यों जैसे मात्रात्मक मानकों को अनुभवजन्य डेटा के साथ अद्यतन किया जाना चाहिए।
  • अन्य अनुशंसाएँ:
    • वर्गीकरण प्रणाली को उच्च-उत्सर्जन क्षेत्रों पर केंद्रित करना
    • मापनीय, वैज्ञानिक-आधारित मानकों को परिभाषित करना
    • एक मजबूत शासन और समीक्षा तंत्र स्थापित करना
    • समानता, सामाजिक सुरक्षा और स्वदेशी ज्ञान को एकीकृत करना
    • MSMEs और संवेदनशील समूहों के लिए चरणबद्ध अनुपालन मार्ग बनाना।

Source: TH

 

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