भारत में जादू-टोना प्रथा

पाठ्यक्रम: GS1/ सामाजिक मुद्दे

सन्दर्भ

  • बिहार के पूर्णिया जिले में जादू-टोना करने के संदेह में एक ही परिवार के पांच सदस्यों की हत्या कर दी गई।

जादू-टोना क्या है?

  • जादू-टोना, विशेष रूप से हानि, दुर्भाग्य या बीमारी पहुँचाने के लिए अलौकिक या जादुई शक्तियों में विश्वास या कथित प्रयोग को संदर्भित करता है।
  • भारतीय संदर्भ में, जादू-टोना:
    • अंधविश्वास और पितृसत्तात्मक मानदंडों से गहराई से जुड़ा हुआ है।
    • प्रायः व्यक्तिगत विवादों को निपटाने, ज़मीन हड़पने या महिलाओं की स्वतंत्रता को दबाने के लिए एक उपकरण के रूप में प्रयोग  किया जाता है।
    • झारखंड, बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़, राजस्थान और असम व पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में यह अधिक प्रचलित है।
  • डायन-शिकार, किसी व्यक्ति (अधिक तर महिलाओं) पर ‘डायन’ होने का आरोप लगाने तथा  उन्हें हिंसा, बहिष्कार, यातना और यहाँ तक कि हत्या का शिकार बनाने की क्रिया है।
  • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, 2016 से 2022 के बीच भारत भर में जादू-टोने से संबंधित हत्याओं में 800 से अधिक  लोग (अधिकतर महिलाएं) मारे गए।

भारत में डायन-शिकार के कारण

  • अंधविश्वास और निरक्षरता: विशेष रूप से आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों में, अस्पष्टीकृत बीमारियों या मृत्यु  के लिए ‘चुड़ैलों’ को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है।
  • लिंग और पितृसत्ता: 75% से अधिक  पीड़ित महिलाएँ हैं, विशेषता: विधवाएँ, वृद्ध, मानसिक रूप से बीमार या निःसंतान महिलाएँ।
  • ज़मीन और संपत्ति हड़पना: महिलाओं को प्रायः उनकी संपत्ति से बेदखल करने या पारिवारिक और सामुदायिक विवादों को निपटाने के लिए आरोप लगाए जाते हैं।
  • सामाजिक हाशिए पर: अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों में डायन-शिकार अधिक  प्रचलित है, जो लंबे समय से सामाजिक बहिष्कार और कानूनी जागरूकता की कमी का सामना कर रहे हैं।

जादू-टोने की चुनौतियाँ

  • मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: डायन-शिकार संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करता है, जो जीवन और सम्मान के अधिकार की गारंटी देता है।
    •  यह अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 15 (भेदभाव से सुरक्षा) का भी उल्लंघन करता है।
  • राज्य संस्थाओं की विफलता: इस प्रथा का जारी रहना दूरदराज के क्षेत्रों में कानून प्रवर्तन, न्यायपालिका और स्वास्थ्य सेवाओं की अप्रभावीता को प्रकट करता है।
  • संवैधानिक मूल्यों का हनन: संविधान का अनुच्छेद 51ए(एच) प्रत्येक नागरिक के कर्तव्य पर बल देता है कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानवतावाद को बढ़ावा दे।

इस मुद्दे के समाधान हेतु कानूनी ढाँचा

  • राज्य-विशिष्ट विधान: किसी केंद्रीय कानून के अभाव में, कई राज्यों ने अपने स्वयं के कानून बनाए हैं;
    • बिहार: डायन प्रथा निवारण अधिनियम, 1999
    • झारखंड: डायन प्रथा निवारण अधिनियम, 2001
    • छत्तीसगढ़: टोना-टोटका निवारण अधिनियम, 2005
    • ओडिशा: डायन-शिकार निवारण अधिनियम, 2013

नागरिक पहल:

  • परियोजना गरिमा (झारखंड): यह पहल कानूनी सहायता, परामर्श, सामुदायिक सहायता और पुनर्वास प्रदान करके डायन कहलाने वाली महिलाओं की गरिमा को पुनर्स्थापित करने का कार्य करती है।
  • प्रोजेक्ट प्रहरी (असम): एक सामुदायिक-पुलिसिंग मॉडल जिसका उद्देश्य पुलिस और आदिवासी समुदायों के बीच विश्वास का निर्माण करना है, जो पूर्व चेतावनी, जागरूकता अभियानों और समय पर कानूनी हस्तक्षेप के माध्यम से अपराध की रोकथाम पर केंद्रित है।
    • संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद प्रस्ताव, 2021: यह देशों से जादू-टोना के आरोपों से जुड़ी हानिकारक प्रथाओं को समाप्त करने का आग्रह करता है।
    • यह कमजोर समूहों की सुरक्षा, हमलों के दस्तावेजीकरण और पीड़ितों के पुनर्वास पर बल देता है।

इस मुद्दे के समाधान में चुनौतियाँ

  • केंद्रीय कानून का अभाव: रोकथाम और पुनर्वास के लिए एक राष्ट्रीय ढाँचा प्रदान करने हेतु डायन-शिकार निवारण विधेयक, 2016 लोकसभा में प्रस्तुत किया गया था।
    • हालाँकि, यह पारित नहीं हो सका और अंततः समाप्त हो गया।
  • आँकड़ों में कमी: एनसीआरबी वर्तमान में डायन-शिकार से होने वाली मृत्यु को सामान्य हत्या के अंतर्गत वर्गीकृत करता है, जिससे प्रवृतियों को ट्रैक करना या हस्तक्षेपों के प्रभाव का मूल्यांकन करना मुश्किल हो जाता है।
  • सामाजिक स्वीकृति और कलंक: कई समुदाय अभी भी डायन-शिकार को एक वैध कृत्य मानते हैं। पीड़ितों को प्रायः आजीवन बहिष्कार का सामना करना पड़ता है और वे मामले की रिपोर्ट करने को तैयार नहीं होते हैं।

आगे की राह

  • व्यापक केंद्रीय कानून: भारत को डायन-हत्या के विरुद्ध एक राष्ट्रीय कानून तत्काल लागू करना चाहिए जो:
    • अपराध को स्पष्ट रूप से परिभाषित करे,
    • अपराधियों को उचित दंड दे,
    • पीड़ितों को सहायता और पुनर्वास प्रदान करे,
    • जागरूकता और शिक्षा संबंधी पहलों को अनिवार्य बनाए।
  • सामुदायिक सहभागिता और वैज्ञानिक सोच: जागरूकता अभियानों में पंचायतों, स्वयं सहायता समूहों और आदिवासी नेताओं को शामिल किया जाना चाहिए ताकि हानिकारक प्रथाओं को चुनौती दी जा सके और संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा दिया जा सके।
  • पुनर्वास ढाँचा: पीड़ितों को सुरक्षित आश्रय, कानूनी सुरक्षा, परामर्श, आर्थिक सहायता और पुनः एकीकरण के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए।

Source: IE

 

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