सर्वोच्च न्यायालय: राष्ट्रपति और राज्यपालों पर समयसीमा अधिरोपित नहीं कर सकते

पाठ्यक्रम: GS2/राजव्यवस्था और शासन

संदर्भ

  • सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर अनुच्छेद 200/201 के अंतर्गत स्वीकृति देने के निर्णयों के लिए कोई समयसीमा निर्धारित नहीं की जा सकती।

पृष्ठभूमि

  • हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने राष्ट्रपति और राज्यपालों को राज्य विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समयसीमा तय की थी। 
  • कारण: राज्यपाल किसी विधेयक पर कार्य करने के लिए किसी समयसीमा के अंतर्गत बाध्य  नहीं हैं।
    • इससे ऐसी स्थिति बनती है कि राज्यपाल किसी विधेयक पर अनिश्चितकाल तक कार्य न करें। इसे “पॉकेट वीटो” कहा जाता है, हालांकि यह शब्द संविधान में आधिकारिक रूप से प्रयुक्त नहीं है। 
  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक विलंब या स्वीकृति रोक नहीं सकते, जब वे विधानसभा द्वारा पारित या पुनः पारित किए जा चुके हों। निर्णय ने राज्यपाल के लिए समयसीमा तय की:
    • पुनः पारित विधेयकों के लिए एक माह।
    • यदि कैबिनेट की परामर्श के विपरीत विधेयक रोका गया है तो तीन माह।
  • यह अनुच्छेद 142 के अंतर्गत न्यायिक अधिकार क्षेत्र की सीमा पर प्रश्न उठाता है, और क्या न्यायालय राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदाधिकारियों पर जवाबदेही लागू कर सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय की स्पष्टता

  • समयसीमा का आरोपण: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जब संविधान में समयसीमा निर्धारित नहीं है और राज्यपाल द्वारा शक्ति के प्रयोग का तरीका स्पष्ट नहीं है, तो न्यायालय के लिए अनुच्छेद 200 के अंतर्गत समयसीमा तय करना उचित नहीं होगा।
  • विधेयकों पर नहीं, कानूनों पर कार्रवाई: पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि राष्ट्रपति या राज्यपाल की विधेयक पर कार्रवाई न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती; न्यायिक समीक्षा केवल तब होगी जब विधेयक कानून बन जाए।
  • संवैधानिक सीमाओं का पुनः पुष्टि: निर्णय ने जोर दिया कि प्रत्येक संवैधानिक प्राधिकरण को अपने क्षेत्र में ही कार्य करना चाहिए।
  • लंबे विलंब: लंबे विलंब के मामलों में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायालय राज्यपाल को सीमित निर्देश दे सकती है कि वह विधेयक पर निर्णय लें।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति और राज्यपाल “लंबे और टालमटोल वाले निष्क्रिय रवैये” का सहारा नहीं ले सकते, और राज्य विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक विलम्ब नहीं कर  सकते।
    • यह जनता की इच्छा को विफल करने का जानबूझकर प्रयास होगा, जो राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित कल्याणकारी कानूनों में व्यक्त होती है।

अनुच्छेद 142 क्या है?

  • अनुच्छेद 142 भारतीय संविधान का एक प्रावधान है जो सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी मामले में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक कोई भी आदेश या डिक्री पारित करने का अधिकार देता है। यह आदेश या डिक्री पूरे भारत में लागू होता है।
  • महत्व:
    • यह सर्वोच्च न्यायालय को कुछ परिस्थितियों में कार्यपालिका और विधायिका के कार्य करने की शक्ति देता है, जैसे सरकार या अन्य प्राधिकरणों को दिशा-निर्देश, आदेश या मार्गदर्शन देना।
    • यह सर्वोच्च न्यायालय को जनहित, मानवाधिकार, संवैधानिक मूल्यों या मौलिक अधिकारों से जुड़े मामलों में हस्तक्षेप करने और उन्हें किसी भी उल्लंघन से बचाने की अनुमति देता है।
    • यह सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका को संविधान का संरक्षक और कानून का अंतिम निर्णायक के रूप में सुदृढ़ करता है।
  • आलोचना: यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत एवं कार्यपालिका व विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप कर सकता है, और न्यायिक अतिक्रमण या सक्रियता की आलोचना आमंत्रित कर सकता है।

राज्यपाल द्वारा विधेयक पारित करने की प्रक्रिया

  • अनुच्छेद 200 के अनुसार जब कोई विधेयक राज्य विधानसभा द्वारा पारित होकर राज्यपाल को प्रस्तुत किया जाता है, तो राज्यपाल के पास चार विकल्प होते हैं:
    • विधेयक को स्वीकृति देना, जिससे वह कानून बन जाए।
    • स्वीकृति रोकना, जिससे विधेयक अस्वीकृत हो जाए।
    • विधेयक को पुनर्विचार हेतु विधानसभा को लौटाना (धन विधेयक को छोड़कर)।
    • विधेयक को राष्ट्रपति के विचार हेतु सुरक्षित रखना, यदि राज्यपाल इसे आवश्यक समझें, जैसे संवैधानिक मामलों या उच्च न्यायालय की शक्तियों से संबंधित मामलों में।
  • यदि विधेयक लौटाया जाता है और विधानसभा उसे पुनः पारित करती है (संशोधन सहित या बिना), तो राज्यपाल को उस पर स्वीकृति देनी ही होगी और वह स्वीकृति रोक नहीं सकते।
  • अनुच्छेद 201 के अनुसार जब कोई विधेयक राष्ट्रपति के विचार हेतु सुरक्षित रखा जाता है, तो राष्ट्रपति कर सकते हैं:
    • विधेयक को स्वीकृति देना, जिससे वह कानून बन जाए।
    • स्वीकृति रोकना, जिससे विधेयक अस्वीकृत हो जाए।
    • विधेयक (यदि धन विधेयक नहीं है) को पुनर्विचार हेतु विधानसभा को संदेश के साथ लौटाना।

राज्यों की चिंताएँ

  • राज्य स्वायत्तता में हस्तक्षेप: राज्यों का तर्क है कि राष्ट्रपति के विचार हेतु विधेयक सुरक्षित रखने में राज्यपाल की भूमिका राज्य विधानसभाओं की स्वायत्तता को कमजोर करती है, खासकर जब विधेयक राज्य सूची में हों।
  • विवेकाधिकार का दुरुपयोग: चिंता है कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की परामर्श के विपरीत विधेयक सुरक्षित रखते हैं, जिससे विवेकाधिकार का दुरुपयोग होता है।
  • निर्णय लेने में विलंब: कई राज्यों ने राष्ट्रपति के निर्णय में विलंब की शिकायत की है, जिससे कानूनों का समय पर लागू होना प्रभावित होता है।
  • स्पष्ट दिशा-निर्देशों का अभाव: राज्यों का सुझाव है कि राज्यपाल और केंद्र सरकार के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश होने चाहिए ताकि विवेकाधिकार का मनमाना प्रयोग रोका जा सके।
  • संघवाद पर प्रभाव: कुछ राज्यों का मानना है कि अनुच्छेद 200 और 201, जो राज्यपाल को विधेयक सुरक्षित रखने की अनुमति देते हैं, भारत की वास्तविक संघीय संरचना के अनुरूप नहीं हैं।

निष्कर्ष

  • मूलतः, यह विकास केवल एक कानूनी प्रश्न नहीं है बल्कि भारत की संघीय संरचना की एक महत्वपूर्ण परीक्षा है, जिसका प्रभाव केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति संतुलन, न्यायिक निगरानी एवं संवैधानिक नैतिकता पर पड़ेगा।

Source: IE

 

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