पाठ्यक्रम: GS2/अंतर्राष्ट्रीय संबंध
संदर्भ
- हाल ही में इजरायल और ईरान के बीच संघर्ष ने पश्चिम एशिया को 1973 के अरब-इजरायल युद्ध के बाद सबसे खतरनाक संकट में डाल दिया है, जिसके दूरगामी भू-राजनीतिक और मानवीय परिणाम होंगे।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- इज़राइल और ईरानरणनीतिक साझेदारी (1948–1979): 1948 में इज़राइल की स्थापना के बाद ईरान गिने-चुने मुस्लिम बहुल देशों में था जिसने उसके साथ अनौपचारिक संबंध बनाए।
- दोनों देशों की रणनीतिक प्राथमिकताएँ समान थीं — विशेषकर अरब राष्ट्रवाद और सोवियत प्रभाव के विरोध में।
- इस साझेदारी के तहत खुफिया सहयोग, व्यापार और सैन्य मामलों में गहरा सहयोग हुआ, जो कि इज़राइल की ‘परिधि सिद्धांत’ (Periphery Doctrine) के अंतर्गत था, जिसके अंतर्गत इज़राइल ने गैर-अरब देशों (जैसे ईरान और तुर्की) से गठबंधन की रणनीति अपनाई थी।
- इस्लामी क्रांति (1979–1990 के दशक): 1979 की ईरानी क्रांति, जिसे आयतुल्ला खोमैनी ने नेतृत्व दिया, ने इज़राइल के साथ सभी संबंध तोड़ दिए और उसे ‘सियोनवादी शासन’ करार दिया।
- ईरान ने एक प्रबल विरोधी-इज़राइल नीति अपनाई, फिलिस्तीनी प्रतिरोध आंदोलनों का समर्थन किया और इज़राइल को ‘छोटा शैतान’ तथा अमेरिका को ‘बड़ा शैतान’ घोषित किया।
- प्रतिनिधि संघर्ष और परमाणु तनाव (1990–2010 के दशक): इस अवधि में तनाव बढ़ा क्योंकि ईरान ने हिज़बुल्लाह और हमास जैसे समूहों का समर्थन किया, जबकि इज़राइल ने ईरान की परमाणु आकांक्षाओं को अस्तित्व के लिए खतरा माना।
- दोनों देशों के बीच साइबर युद्ध, हत्याएं, और परोक्ष सैन्य टकराव (विशेष रूप से सीरिया और लेबनान में) हुए।
- प्रत्यक्ष शत्रुता(2020 के दशक–वर्तमान): अब यह संबंध प्रत्यक्ष सैन्य टकराव में बदल चुका है — मिसाइल हमले, तोड़फोड़ अभियान और उच्च-स्तरीय हत्याएं दोनों पक्षों द्वारा की जा रही हैं।
- हाल ही में इज़राइल ने ऑपरेशन राइजिंग लायन चलाया, जिसमें नतान्ज और खोन्दाब जैसे ईरानी परमाणु स्थलों सहित 170 से अधिक ठिकानों को निशाना बनाया गया।
- हमले में कई ईरानी वैज्ञानिक और उच्च अधिकारी मारे गए, जिसके जवाब में ईरान ने 200 से अधिक बैलिस्टिक मिसाइलें और 100 ड्रोन तेल अवीव और यरुशलम जैसे इज़राइली शहरों पर दागे।
गहरा रहे संघर्ष के वैश्विक प्रभाव
- ऊर्जा बाजार में उथल-पुथल: ईरान के तेल प्रतिष्ठान लक्ष्य बनने और हॉर्मुज़ जलडमरूमध्य — जो वैश्विक तेल का ~20% परिवहन करता है — के खतरे में आने से ब्रेंट क्रूड की कीमत 6% से अधिक और वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट की कीमत 5% से अधिक बढ़ गई है।
- मुद्रास्फीति और आर्थिक दबाव: जो देश तेल आयात पर निर्भर हैं, उन्हें ईंधन महंगाई, महंगाई के दबाव और वित्तीय घाटे का खतरा है।
- जिन देशों के लिए ईरान प्रत्यक्ष आपूर्तिकर्ता नहीं है, वे भी प्रभावित हैं क्योंकि उनकी ईंधन कीमतें वैश्विक मानकों से जुड़ी हैं।
- शिपिंग और व्यापार बाधाएँ: यदि ईरान टैंकरों पर हमला करता है या हॉर्मुज़ जलडमरूमध्य बंद करता है, तो वैश्विक व्यापार मार्ग गंभीर रूप से बाधित हो सकते हैं।
- राजनयिक झटका और रणनीतिक पुनर्संरेखण: इस संघर्ष ने अमेरिका-ईरान परमाणु वार्ताओं को रोक दिया है।
- खाड़ी में अमेरिकी ठिकानों पर हमले की स्थिति में अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप का खतरा बढ़ गया है।
- रूस और चीन जैसे वैश्विक शक्तियाँ अब अपने रुख में बदलाव कर रही हैं, जिससे वैश्विक गठबंधन पुनर्गठित हो सकते हैं।
भारत के लिए प्रभाव
- ऊर्जा सुरक्षा और आर्थिक दबाव: भारत 80% से अधिक कच्चा तेल आयात करता है, जिसमें अधिकांश हॉर्मुज़ जलडमरूमध्य से आता है।
- पिछली खाड़ी अशांतियों ने दिखाया है कि थोड़ी सी अस्थिरता भी भारत की ऊर्जा स्थिरता को प्रभावित कर सकती है।
- व्यापार में बाधा:
- बासमती चावल का निर्यात: ईरान भारतीय बासमती का एक बड़ा आयातक है। संघर्ष के कारण पंजाब और हरियाणा के निर्यातक प्रभावित हुए हैं।
- रणनीतिक वस्तुएँ: उर्वरक, सूखे मेवे और यूरिया जैसे ईरान से आने वाले मुख्य आयात अब प्रतिबंधों या लॉजिस्टिक समस्याओं के कारण प्रभावित हो सकते हैं।
- कनेक्टिविटी परियोजनाएँ संकट में: भारत की चाबहार बंदरगाह और अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन कॉरिडोर (INSTC) जो ईरान से होकर गुजरता है, अब विलंब और अनिश्चितता से घिरा है।
- यह चीन-प्रायोजित मार्गों पर निर्भरता कम करने के भारत के प्रयासों को कमजोर करता है।
- राजनयिक संतुलन: भारत ने तटस्थ रुख अपनाया है और दोनों पक्षों से तनाव कम करने और कूटनीति द्वारा समाधान निकालने की अपील की है।
- भारत ने SCO के इज़राइल विरोधी बयान से दूरी बनाते हुए स्वतंत्र और संतुलित रुख अपनाया।
- विदेश मंत्रालय (MEA) ने ज़ोर दिया कि “वर्तमान संवाद एवं कूटनीतिक माध्यमों का उपयोग कर स्थिति को शांत करने और मूल मुद्दों का समाधान किया जाना चाहिए।”
- निकासी और नागरिक सुरक्षा: भारत ने ऑपरेशन सिंधु शुरू किया, जिसमें ईरान और इज़राइल से छात्रों और श्रमिकों को सुरक्षित निकाला गया, विशेष रूप से आर्मेनिया के रास्ते। यह भारत के लिए इस संकट के मानवीय पक्ष को रेखांकित करता है।
इज़राइल-ईरान संघर्ष: आगे की राह
- राजनयिक चैनलों का पुनर्निर्माण: इज़राइली हमलों के बाद US-ईरान परमाणु वार्ताएँ रुक गई हैं और अब राजनीतिक शून्यता बन गई है।
- अमेरिका, रूस और यूरोपीय संघ को दोनों पक्षों को दोबारा वार्ता की ओर लाने के लिए JCPOA ढाँचे के अंतर्गत पहल करनी चाहिए।
- क्षेत्रीय मध्यस्थता और भरोसा निर्माण:भारत, तुर्की और कतर जैसे क्षेत्रीय देश मध्यस्थता में रचनात्मक भूमिका निभा सकते हैं।
- भारत, दोनों देशों से ऐतिहासिक संबंध और तटस्थ दृष्टिकोण के चलते पृष्ठभूमि कूटनीति (backchannel diplomacy) को बढ़ावा देने के लिए उपयुक्त स्थिति में है।
- आपसी संघर्षविराम समझौते और संवेदनशील स्थलों की तृतीय पक्ष निगरानी जैसे भरोसा निर्माण उपाय आवश्यक हैं।
- घरेलू राजनीतिक दबाव को समझना:अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को इज़राइल और ईरान की आंतरिक राजनीति का ध्यान रखते हुए विकल्प देने चाहिए, ताकि दोनों पक्ष तनाव कम कर सकें बिना कमज़ोर दिखे।
- इज़राइल में प्रधानमंत्री आंतरिक विरोध और गठबंधन अस्थिरता का सामना कर रहे हैं, जबकि ईरान में कट्टरपंथी नेता इस संकट का उपयोग अपनी क्षमता को मजबूत करने के लिए कर रहे हैं।
दैनिक मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न [प्रश्न] चल रहे इजराइल-ईरान संघर्ष ने भारत की रणनीतिक स्वायत्तता को किस तरह चुनौती दी है? पश्चिम एशिया में बढ़ते तनाव के बीच भारत अपनी कूटनीतिक प्रतिबद्धताओं को किस तरह संतुलित कर सकता है? |
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