सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामले सर्वकालिक उच्च स्तर पर

पाठ्यक्रम: GS2/न्यायपालिका

संदर्भ

  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों की संख्या सर्वकालिक उच्चतम स्तर पर पहुँच गई है, जिससे न्यायिक प्रणाली की दक्षता, पहुँच और विश्वसनीयता को लेकर गंभीर चिंताएँ उठ रही हैं।

वर्तमान मामलों का भार

  • नेशनल जुडिशियल डेटा ग्रिड (NJDG) के अनुसार, भारत के सर्वोच्च न्यायालय में मामलों की लंबितता अभूतपूर्व स्तर पर पहुँच गई है, जहाँ वर्तमान में 88,492 मामले विचाराधीन हैं, जिनमें 69,605 दीवानी मामले और 18,887 आपराधिक मामले शामिल हैं। 
  • विगत पाँच वर्षों में यह संख्या 35% से अधिक बढ़ी है, जबकि इस दौरान डिजिटलीकरण और संरचनात्मक सुधार किए गए हैं।
वर्तमान मामलों का भार

मामलों की लंबितता के कारण

  • मामलों का कम निराकरण: केवल अगस्त 2025 में ही न्यायालय में 7,080 नए मामले दर्ज हुए, जबकि 5,667 मामलों का निराकरण हुआ, जिससे 80.04% की निराकरण दर सामने आई।
    • जनवरी से अगस्त 2025 तक सर्वोच्च न्यायालय में 52,630 मामले दर्ज हुए, जिनमें से 46,309 का निराकरण हुआ, जिससे वार्षिक निराकरण दर लगभग 88% रही।
  • सीमित कार्य दिवस: न्यायालय की छुट्टियाँ और सीमित कार्य समय के कारण बैठकों की संख्या अपर्याप्त रहती है, जिससे बढ़ते मामलों को संभालना मुश्किल होता है।
  • प्रक्रियात्मक जटिलता: लंबी प्रक्रियाएँ, स्थगन और अपीलें न्याय की गति को धीमा करती हैं।
  • न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात कम: भारत में प्रति दस लाख जनसंख्या पर केवल 21 न्यायाधीश हैं, जबकि अनुशंसित संख्या 50 है।
  • विशेष अनुमति याचिकाओं (SLPs) का अत्यधिक उपयोग: अनुच्छेद 136 सर्वोच्च न्यायालय को अपवादस्वरूप मामलों की अपील सुनने की अनुमति देता है।
    • लेकिन SLPs का अत्यधिक और अनियंत्रित रूप से दायर किया जाना न्यायालय की कार्यसूची पर अत्याधिक दबाव डालता है, जबकि ये मामले निचली अदालतों में आसानी से सुलझाए जा सकते हैं।
  • सरकारी मुकदमों की अधिकता: सरकार सबसे बड़ा वादी है, जो लगभग 50% लंबित मामलों के लिए उत्तरदायी है, जिनमें से कई को अनावश्यक या दोहराव वाला माना जाता है।
  • अपर्याप्त अवसंरचना और तकनीकी अपनापन: कई अदालतों में सुदृढ़ केस प्रबंधन प्रणाली की कमी है, भले ही डिजिटलीकरण प्रयास किए गए हों। AI और ई-कोर्ट्स का सीमित उपयोग शेड्यूलिंग, ट्रैकिंग और कुशल निपटान में बाधा डालता है।
  • पुराने मामले और दीर्घकालिक बैकलॉग: हजारों मामले एक दशक से अधिक समय से लंबित हैं, कुछ तो 30+ वर्षों पुराने हैं। समान मामलों को प्राथमिकता न देना और एक साथ निराकरण की कमी से ठहराव बना रहता है।
  • वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) की कमी: मध्यस्थता और पंचाट का पर्याप्त उपयोग नहीं हो रहा है, जबकि ये न्यायालयों का भार अत्यंत सीमा तक कम कर सकते हैं।

न्याय और शासन पर प्रभाव

  • जन विश्वास का क्षरण: जब न्याय में देरी होती है, विशेष रूप से मानवाधिकार, भ्रष्टाचार और संवैधानिक व्याख्या से जुड़े मामलों में, तो नागरिकों का न्यायपालिका पर विश्वास कम होता है।
  • आर्थिक प्रभाव: वाणिज्यिक विवादों का लंबित रहना निवेश को हतोत्साहित करता है और आर्थिक विकास को धीमा करता है।
  • सामाजिक अन्याय: कमजोर वर्गों को सबसे अधिक हानि होती है, क्योंकि आपराधिक मुकदमों और दीवानी विवादों में देरी से अनिश्चितता एवं कठिनाई बढ़ती है।
  • कारावास की अधिकता: इंडियन जस्टिस रिपोर्ट 2025 के अनुसार, भारत की आधे से अधिक जेलें ओवरक्राउडेड हैं और लगभग 76% कैदी विचाराधीन हैं।

सुधारात्मक उपाय

  • विभेदित केस प्रबंधन (DCM): सर्वोच्च न्यायालय ने ‘अनक्लॉगिंग द डॉकेट’ पहल के अंतर्गत इसे अपनाया, जिसका उद्देश्य छोटे, अप्रासंगिक और पुराने मामलों की पहचान कर उन्हें शीघ्र निपटाना था—वे मामले जो अप्रासंगिक हो चुके थे या वर्षों से सूचीबद्ध नहीं हुए थे।
    • इससे 104% की निपटान दर प्राप्त हुई, जो न्यायिक दक्षता का नया मानक बना।
  • लंबित मामलों की समितियाँ और निगरानी तंत्र: सर्वोच्च न्यायालय ने लंबित मामलों को  कम करने की रणनीति बनाने के लिए समितियाँ गठित की हैं।
    • ये समितियाँ मालीमठ समिति की सिफारिशों के अनुसार सख्त समयसीमा और प्रक्रियात्मक अनुशासन की निगरानी करती हैं।
  • न्यायिक क्षमता और कार्य दिवसों में वृद्धि: मालीमठ समिति और विधि आयोग की रिपोर्टों की सिफारिशें:
    • सर्वोच्च न्यायालय के कार्य दिवसों की संख्या बढ़ाना;
    • अवकाश अवधि को 10–21 दिनों तक कम करना;
    • न्यायिक रिक्तियों को शीघ्र भरना ताकि कार्यभार कम हो।
  • विधायी और प्रक्रियात्मक सुधार:
    • मध्यस्थता और सुलह अधिनियम (2015 और 2019): विवाद समाधान के लिए समयसीमा निर्धारित की गई;
    • वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम (2018): संस्थान पूर्व मध्यस्थता को अनिवार्य किया गया;
    • परक्राम्य लिखत अधिनियम (2018): चेक बाउंस मामलों के लिए संक्षिप्त सुनवाई की अनुमति दी गई;
  • सर्वोच्च न्यायालय को विभाजित करने का प्रस्ताव: दसवीं और ग्यारहवीं विधि आयोगों ने सर्वोच्च न्यायालय को दो भागों में बाँटने का सुझाव दिया:
    • संवैधानिक पीठ: मौलिक अधिकारों और संवैधानिक मामलों के लिए;
    • विधिक पीठ: नियमित अपीलों के लिए।
  • ई-कोर्ट्स और डिजिटल उपकरण: सर्वोच्च न्यायालय ने ई-फाइलिंग, वर्चुअल सुनवाई और इलेक्ट्रॉनिक केस मैनेजमेंट टूल्स (ECMTs) का विस्तार किया है।
    •  ये प्लेटफ़ॉर्म न्यायाधीशों और वकीलों को केस की स्थिति ट्रैक करने, दस्तावेज़ों तक पहुँचने और प्रक्रियात्मक देरी को कम करने में सहायता करते हैं।
  • नेशनल जुडिशियल डेटा ग्रिड (NJDG): यह पारदर्शिता एवं विश्लेषण प्रदान करता है, लेकिन इसे केस मैनेजमेंट सिस्टम के साथ और बेहतर एकीकरण की आवश्यकता है।
  • सरकार की त्वरित कार्रवाई: हाल के महीनों में सरकार ने कोलेजियम की सिफारिशों को अक्सर 48 घंटे के अंदर मंजूरी दी है।
  • ग्रीष्मकालीन अवकाश का कार्य दिवसों में परिवर्तन: मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने पारंपरिक ग्रीष्मकालीन अवकाश को ‘आंशिक कार्य दिवसों’ में परिवर्तित कर दिया।

Source: TH

 

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