पाठ्यक्रम: GS2/शासन
संदर्भ
- प्रत्येक वर्ष 9 नवंबर को राष्ट्रीय विधिक सेवा दिवस मनाया जाता है, ताकि विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 को स्मरण किया जा सके, जिसने ज़रूरतमंदों को निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करने वाले संगठनों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया।
परिचय
- भारत, विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, न्याय, समानता और स्वतंत्रता की नींव पर निर्मित है।
- भारतीय संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार और कानून के अंतर्गत समान संरक्षण की गारंटी देता है। इनमें शामिल हैं:
- अनुच्छेद 14: विधि के समक्ष समानता
- अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण
- अनुच्छेद 22: कुछ मामलों में गिरफ्तारी और निरोध के विरुद्ध संरक्षण
- अनुच्छेद 39A: समान न्याय और निःशुल्क कानूनी सहायता (42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया)
विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987
- यह 9 नवंबर 1995 को प्रभावी हुआ और समाज के हाशिए पर रहने वाले तथा वंचित वर्गों को निःशुल्क एवं सक्षम कानूनी सेवाएँ प्रदान करने के लिए एक राष्ट्रीय ढाँचे की स्थापना की।
- इस अधिनियम ने लोक अदालतों और स्थायी लोक अदालतों की स्थापना की, जो विवादों के सौहार्दपूर्ण निपटारे के लिए मंच हैं, जिनमें पूर्व-विवाद (pre-litigation) मामले भी शामिल हैं।
- विधिक सेवा प्राधिकरणों की त्रि-स्तरीय संरचना:
- राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA): भारत के मुख्य न्यायाधीश इसके अध्यक्ष होते हैं; केंद्रीय निधि और दान से वित्तपोषित।
- राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (SLSAs): उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश इसके अध्यक्ष होते हैं; केंद्र और राज्य सरकार से वित्तपोषित।
- जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (DLSAs): जिला न्यायाधीश इसके अध्यक्ष होते हैं; राज्य सरकार और दान से वित्तपोषित।
- निःशुल्क कानूनी सहायता प्राप्त करना:पात्र व्यक्ति निःशुल्क कानूनी सेवाओं के लिए आवेदन कर सकते हैं:
- विधिक सेवा प्राधिकरण कार्यालयों में लिखित या मौखिक आवेदन द्वारा।
- NALSA, राज्य या जिला पोर्टल्स के माध्यम से ऑनलाइन आवेदन द्वारा।
- आवेदन शीघ्रता से निपटाए जाते हैं, और NALSA (निःशुल्क और सक्षम कानूनी सेवाएँ) विनियम, 2010 के विनियम 7(2) के अनुसार, निर्णय सात दिनों के अंदर लिया जाना चाहिए।
- 2022–23 से 2024–25 तक, 44.22 लाख से अधिक लोगों ने निःशुल्क कानूनी सहायता और परामर्श का लाभ उठाया।
NALSA और राज्य विधिक सेवा प्राधिकरणों की भूमिका
- NALSA और SLSAs महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं:
- विवादों के शीघ्र और सौहार्दपूर्ण निपटारे के लिए लोक अदालतों का आयोजन।
- दूरस्थ और पिछड़े क्षेत्रों में कानूनी सहायता क्लीनिक चलाना।
- नागरिकों को उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित करने के लिए विधिक साक्षरता शिविर आयोजित करना।
- पीड़ित मुआवज़ा योजनाओं और मध्यस्थता सेवाओं का समर्थन करना।
समग्र न्याय के लिए नवाचार पहल
- DISHA फ्रेमवर्क:
- टेली-लॉ और न्याय बंधु: ये डिजिटल पहल नागरिकों, विशेषकर दूरस्थ क्षेत्रों में, को तकनीक के माध्यम से कानूनी सलाहकारों से जोड़ती हैं।
- विधिक साक्षरता और जागरूकता कार्यक्रम (LLLAP): यह 22 अनुसूचित भाषाओं में संचार सामग्री के माध्यम से कानूनी जागरूकता को बढ़ावा देता है, जिसमें राज्य एजेंसियों की सक्रिय भागीदारी होती है।
- फास्ट-ट्रैक कोर्ट (FTCs): महिलाओं, बच्चों, वरिष्ठ नागरिकों और अन्य कमजोर वर्गों से जुड़े मामलों में शीघ्र सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए स्थापित।
- फास्ट ट्रैक विशेष न्यायालय(FTSCs): गंभीर यौन अपराधों, विशेषकर POCSO अधिनियम के अंतर्गतमामलों पर केंद्रित।
- ग्राम न्यायालय: ग्रामीण क्षेत्रों में न्याय तक पहुँच बढ़ाने के लिए गाँव स्तर के न्यायालय।
- नारी अदालतें:मिशन शक्ति योजना के अंतर्गत पहल, जो लैंगिक हिंसा का समाधान मध्यस्थता और मेल-मिलाप के माध्यम से करती हैं।
- 7–9 महिलाओं से बनी ये न्यायालय महिलाओं को अपने अधिकार व्यक्त करने और कानूनी सहायता प्राप्त करने में सक्षम बनाती हैं।
- हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए विशेष अदालतें: अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अधिकारों की रक्षा हेतु SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अंतगर्त 211 विशेष न्यायालय स्थापित किए गए हैं।
भारत में कानूनी सेवाओं तक पहुँच की चिंताएँ और चुनौतियाँ
- जागरूकता की कमी: कई पात्र नागरिक विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के अंतगर्त निःशुल्क कानूनी सहायता के अपने अधिकार से अनभिज्ञ हैं।
- ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में विधिक साक्षरता कम है।
- भौगोलिक असमानताएँ: कानूनी सहायता सेवाएँ शहरी केंद्रों में केंद्रित हैं, जिससे दूरस्थ क्षेत्र पिछड़े रह जाते हैं।
- मोबाइल कानूनी सहायता क्लीनिक और आउटरीच वैन उपस्थित हैं, लेकिन माँग पूरी करने के लिए अपर्याप्त हैं।
- गुणवत्ता और जवाबदेही: कानूनी सहायता वकीलों पर प्रायः प्रतिबद्धता की कमी, कमजोर तैयारी और अपर्याप्त फॉलो-अप का आरोप लगता है।
- कानूनी सहायता प्रदाताओं की निगरानी या प्रदर्शन मूल्यांकन सीमित है।
- अतिभारित न्यायपालिका: भारत के न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या 5 करोड़ से अधिक है, जिससे देरी और समय पर न्याय से वंचित होना सामान्य है।
- कानूनी सहायता लाभार्थियों को अक्सर लंबी प्रतीक्षा और प्रक्रियात्मक बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
- डिजिटल विभाजन: ई-कोर्ट और ऑनलाइन कानूनी सेवाएँ बढ़ रही हैं, लेकिन कई नागरिकों के पास इंटरनेट या डिजिटल साक्षरता का अभाव है।
- इसका प्रभाव महिलाओं, बुजुर्गों और ग्रामीण जनसंख्या पर अधिक पड़ता है।
- सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाएँ: दलितों, आदिवासियों और महिलाओं जैसे हाशिए पर रहने वाले समूहों को कानूनी सहायता मांगते समय प्रायः भेदभाव या भय का सामना करना पड़ता है।
- भाषा की बाधाएँ और अधिकार का भय कानूनी प्रणाली से जुड़ने में और हतोत्साहित करते हैं।
आगे की राह
- विद्यालय पाठ्यक्रम और सामुदायिक पहुँच के माध्यम से विधिक साक्षरता को सुदृढ़ करना।
- कानूनी सहायता वकीलों के लिए प्रशिक्षण और प्रोत्साहन में सुधार करना।
- ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे का विस्तार करना।
- पारदर्शी निगरानी और प्रतिक्रिया तंत्र के माध्यम से जवाबदेही सुनिश्चित करना।
- समावेशी तकनीकी समाधान और ऑफलाइन समर्थन के साथ डिजिटल विभाजन का समापन।
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