जलवायु परिवर्तन नहीं, बल्कि अनियंत्रित विकास, हिमालय के लिए खतरा

पाठ्यक्रम: GS3/पर्यावरण; सतत विकास

संदर्भ

  • हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में हाल ही में आई आपदाओं से यह संकेत प्राप्त हुआ है कि वास्तविक संकट उत्प्रेरक मानवजनित विघटन है, जबकि वैश्विक तापमान में वृद्धि निश्चित रूप से पर्यावरणीय तनाव को बढ़ा रही है।

हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र की संवेदनशीलता

  • हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र स्वाभाविक रूप से संवेदनशील है, जिसका कारण इसका युवा भूवैज्ञानिक आयु, तीव्र ढलान और गतिशील मौसम प्रणाली है। इसकी विशेषताएँ हैं:
    • टेक्टोनिक गतिविधियों के कारण उच्च भूकंपीय सक्रियता;
    • वनों की कटाई और ढलानों की अस्थिरता से उत्पन्न तीव्र कटाव एवं भूस्खलन;
    • ISRO की रिपोर्ट के अनुसार, विगत तीन दशकों में हिमालयी हिमनदी झीलों का आकार काफी बढ़ा है, कुछ झीलें 170% से अधिक बढ़ी हैं—जो तापमान वृद्धि एवं भूमि उपयोग परिवर्तन का प्रत्यक्ष परिणाम है, और हिमनदी झील फटने की बाढ़ (GLOFs) का खतरा बढ़ाती हैं;
  • IPCC की रिपोर्ट पुष्टि करती है कि हिमालय सबसे अधिक जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है;
  • पर्यावरण मंत्रालय की पर्यावरण की स्थिति रिपोर्ट (2021) के अनुसार, विगत पाँच दशकों में हिमालयी हिमनदियों का 30% से अधिक हिस्सा पीछे हट चुका है;
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के SACHET पोर्टल  में हिमालयी राज्यों में भूस्खलन, अचानक बाढ़ और हिमस्खलन की बढ़ती आवृत्ति को उजागर किया गया है।
    • ये आपदाएँ प्रायः खराब योजना और प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली की कमी के कारण अधिक गंभीर हो जाती हैं।

हाल के विध्वंश

  • अगस्त में, पंजाब ने 1988 के पश्चात की सबसे भीषण बाढ़ का सामना किया, जब सतलुज, ब्यास और रावी नदियाँ उफान पर आ गईं तथा गाँवों को डुबो दिया।
    • हिमालयी राज्यों में मूसलधार बारिश के कारण कई लोगों की मृत्यु हुई, जबकि उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के धाराली गाँव को भूस्खलन से उत्पन्न बाढ़ ने पूरी तरह से विध्वंश कर दिया। 
    • ये आपदाएँ हिमालयी क्षेत्र की विगत त्रासदियों का स्मरण कराती हैं—जैसे केदारनाथ बाढ़ (2013) और चमोली आपदा (2021)—जिन्हें हमेशा “ प्राकृतिक घटनाएँ” माना गया। 
  • 2017 से 2022 के बीच, केवल हिमाचल प्रदेश में ही बाढ़ एवं भूस्खलन के कारण 1,550 से अधिक लोगों की जान गई और 12,000 से अधिक घर क्षतिग्रस्त हुए।

मानवजनित विघटन: विकास बनाम पारिस्थितिकी

  • अयोजित विकास: व्यापक बुनियादी ढांचा परियोजनाएँ, विशेष रूप से जलविद्युत संयंत्र, राजमार्ग और सुरंगें, पर्यावरणीय या आपदा प्रभाव मूल्यांकन के बिना बनाई जा रही हैं। 
  • वनों की कटाई और भूमि उपयोग परिवर्तन: कृषि विस्तार, शहरीकरण और जलविद्युत परियोजनाएँ बड़े पैमाने पर वनों की कटाई का कारण बन रही हैं।
    • भारतीय वन सर्वेक्षण की रिपोर्टों में बताया गया है कि कुछ हिमालयी राज्यों में वन क्षेत्र अनियंत्रित निर्माण के कारण घट रहा है। 
  • जलविद्युत और अवसंरचना विकास: बाँधों, सुरंगों और राजमार्गों के निर्माण ने ढलानों को अस्थिर कर दिया है।
    • हिमाचल प्रदेश में वर्तमान में 180 जलविद्युत संयंत्र चालू हैं, और सैकड़ों निर्माणाधीन हैं।
    •  उत्तराखंड में 40 संयंत्र चालू हैं और 87 योजना में हैं। 
    • ये परियोजनाएँ, सड़क चौड़ीकरण और सुरंग निर्माण के साथ मिलकर भारी मशीनरी का उपयोग करती हैं, जो ढलानों को अस्थिर करती हैं तथा आपदा जोखिम में वृद्धि करती हैं। 
    • चार धाम परियोजना के अंतर्गत निर्माण और उत्तराखंड में अनियंत्रित सुरंग निर्माण भूस्खलन के खतरे को बढ़ाते हैं। 
  • पर्यटन दबाव: हिमाचल, सिक्किम और उत्तराखंड जैसे संवेदनशील पर्वतीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर पर्यटन स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव डालता है।
    •  ठोस अपशिष्ट, सड़क विस्तार और अनियंत्रित रिसॉर्ट्स पारिस्थितिक क्षरण को तीव्र  करते हैं। 
  • रेत खनन और नदी तल का दोहन: हिमालयी नदियों में अत्यधिक खनन जल प्रवाह को कम करता है, बाढ़ का खतरा बढ़ाता है और जलीय जैव विविधता को बाधित करता है।

हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को सुदृढ़ करना

  • हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय मिशन (NMSHE): राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्य योजना (NAPCC) के अंतर्गत एक प्रमुख मिशन, जो पारिस्थितिक लचीलापन बनाए रखने के लिए अनुसंधान, नीति निर्माण और क्षमता निर्माण को बढ़ावा देता है। 
  • हिमालयी अध्ययन पर राष्ट्रीय मिशन (NMHS): यह जल संसाधन प्रबंधन, जैव विविधता संरक्षण, जलवायु-संवेदनशील अवसंरचना और अपशिष्ट प्रबंधन जैसे विषयों पर अनुसंधान एवं पायलट परियोजनाओं का समर्थन करता है।
    • यह पर्यावरण के लिए जीवनशैली (LiFE) जैसी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और SDGs जैसे वैश्विक लक्ष्यों के साथ संरेखित है।

न्यायिक हस्तक्षेप और टिप्पणियाँ

  • हाल ही में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने चेतावनी दी कि यदि अनियंत्रित विकास जारी रहा तो हिमाचल प्रदेश “भारत के नक्शे से गायब” हो सकता है।
    • न्यायालय ने कहा कि चंडीगढ़–मनाली राजमार्ग पर बनी सुरंगें बारिश के दौरान “मृत्यु के जाल” बन जाती हैं। 
  • सितंबर में, बाढ़ में तैरते पेड़ों की तस्वीरों को देखकर न्यायमूर्ति बी.आर. गवई ने अनियंत्रित विकास के लिए जंगलों और जीवन की बलि देने के विरुद्ध चेतावनी दी।

सतत विकास के मार्ग

  • संदर्भ आधारित विकास: विकास परियोजनाओं को अनुमोदन से पहले जीवनचक्र, आपदा और सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन से गुजरना चाहिए, साथ ही वास्तविक सार्वजनिक परामर्श भी होना चाहिए।
  • पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र निर्धारण: संवेदनशील ढलानों पर निर्माण को सीमित करना।
  • समुदाय आधारित पर्यटन मॉडल जिनमें अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली शामिल हो।
  • जलविद्युत के विकल्प: बड़े बाँधों की बजाय माइक्रो-हाइडल परियोजनाओं को प्राथमिकता देना।
  • जलवायु-संवेदनशील अवसंरचना: भूकंपीय सुरक्षा और हरित डिज़ाइन को शामिल करना।
  • भूस्खलन, GLOFs और अचानक बाढ़ के लिए सुदृढ़ प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली।
  • सख्त भूमि उपयोग योजना ताकि असुरक्षित निर्माण को रोका जा सके।
दैनिक मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न
[प्रश्न] आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए कि किस प्रकार तीव्र विकास हिमालयी क्षेत्र के पारिस्थितिक क्षरण और आपदा की संवेदनशीलता में वृद्धि में योगदान दे रहा है।

Source: TH

 

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