पाठ्यक्रम: GS3/ पर्यावरण
संदर्भ
- आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) ने अपनी वैश्विक सूखा परिदृश्य रिपोर्ट जारी की है, जिसमें सूखे की बढ़ती आवृत्ति और भौगोलिक प्रसार को उजागर किया गया है।
सूखा क्या है?
- सूखा ऐसे समय को दर्शाता है जब जल स्रोतों या जलाशयों में हाइड्रोलॉजिकल असंतुलन देखा जाता है, सामान्यतः “सामान्य से अधिक शुष्क” मौसम की स्थिति द्वारा चिह्नित।
- यह स्थिति मुख्य रूप से कम वर्षा से उत्पन्न होती है और उच्च तापमान या तीव्र वायु जैसी परिस्थितियाँ इसे और अधिक तीव्र बना देती हैं, साथ ही मानवीय गतिविधियाँ भी इसकी गंभीरता बढ़ा सकती हैं।
- वर्गीकरण:
- मौसमीय सूखा (Meteorological Drought): यह एक लंबे समय तक कम वर्षा की स्थिति को दर्शाता है।
- कृषि या पारिस्थितिकीय सूखा (Agricultural/Ecological Drought): जब मृदा में नमी की मात्रा फसलों और वनस्पति की आवश्यकताओं के लिए अपर्याप्त हो जाती है।
- जलवैज्ञानिक सूखा (Hydrological Drought): जब सतही या भूजल स्तर लंबे समय तक औसत से नीचे बना रहता है।
मुख्य निष्कर्ष
- 1900 से 2020 के बीच वैश्विक भूमि क्षेत्र में सूखा प्रभावित क्षेत्र दोगुना हो गया है, और विगत दशकों में 40% पृथ्वी पर सूखे की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि देखी गई है।
- 1980 से अब तक, वैश्विक भूमि का 37% भाग मृदा की नमी में महत्वपूर्ण गिरावट का सामना कर चुका है।
- इसी प्रकार, विश्वभर में भूजल स्तर गिर रहा है, और निगरानी किए गए 62% जलभृत घटाव में हैं।
- जलवायु परिवर्तन ने 2022 के यूरोपीय सूखे की संभावना को 20 गुना तक और उत्तर अमेरिका में वर्तमान सूखे की संभावना को 42% तक बढ़ा दिया।
सूखे के कारण
- प्राकृतिक कारण:
- जलवायु में परिवर्तन जैसे एल नीनो और ला नीना वैश्विक मौसम पैटर्न को प्रभावित करते हैं और कुछ क्षेत्रों में लंबे शुष्क काल ला सकते हैं।
- हिमपात में कमी और ग्लेशियरों का पिघलना समय के साथ ताजे जल स्रोतों को कम करता है।
- मानवजनित कारण:
- वनों की कटाई और भूमि ह्रास मृदा में नमी बनाए रखने की क्षमता को कम कर देते हैं और स्थानीय जल चक्र को बाधित करते हैं।
- शहरीकरण के कारण भूमि की सीलिंग होती है, जिससे जल का पुनःभरण नहीं हो पाता।
- अव्यवस्थित कृषि और भूजल का अत्यधिक दोहन, विशेष रूप से अप्रभावी सिंचाई प्रणालियों के ज़रिए, कुछ क्षेत्रों में सूखे की तीव्रता को और बढ़ा देते हैं।
सूखे के प्रभाव
- पर्यावरणीय प्रभाव: सूखा वन, आर्द्रभूमि और घासभूमियों जैसे पारिस्थितिक तंत्रों को बुरी तरह क्षति पहुंचाता है, जिससे जैव विविधता की हानि और पौधों की बायोमास में कमी आती है।
- आर्थिक प्रभाव: सूखा जलविद्युत उत्पादन, औद्योगिक कार्यों एवं नदी व्यापार को प्रभावित करता है, जिससे दक्षता में गिरावट और ऊर्जा एवं खाद्य सुरक्षा में संकट उत्पन्न होता है।
- वैश्विक स्तर पर सूखे की आर्थिक लागत प्रति वर्ष 3% से 7.5% तक बढ़ रही है।
- सामाजिक प्रभाव: यह खाद्य असुरक्षा, प्रवासन, जल संकट और आजीविका की हानि का कारण बनते हैं, विशेष रूप से वंचित और संवेदनशील समुदायों में।
- हालाँकि सूखे का हिस्सा केवल 6% प्राकृतिक आपदाओं में है, फिर भी ये आपदा-संबंधी कुल मौतों के 34% के लिए ज़िम्मेदार हैं।
मुख्य सिफारिशें
- सूखा लचीलापन निवेश: प्रत्येक 1 अमेरिकी डॉलर के सूखा निवारण निवेश पर 2 से 3 डॉलर का प्रतिफल मिलता है, और कुछ परियोजनाएं तो 10 गुना तक लाभ देती हैं।
- पारिस्थितिकी तंत्र और भूमि उपयोग प्रबंधन: पारिस्थितिकी तंत्र की पुनर्स्थापना जलधारण और मिट्टी की गुणवत्ता को बेहतर बनाती है।
- सूखा-रोधी फसलें और अनुकूल कृषि तकनीक खाद्य प्रणाली की सुरक्षा में सहायक होती हैं।
- अंतर-क्षेत्रीय कार्रवाई: ऊर्जा, परिवहन, अवसंरचना, और शहरी नियोजन को भी सूखा लचीलापन रणनीतियों में शामिल किया जाना चाहिए।
- सिंचाई दक्षता में सुधार से वैश्विक जल उपयोग में 76% तक की कटौती संभव है।
| भारत में उठाए गए कदम – एकीकृत जलग्रहण प्रबंधन कार्यक्रम (IWMP): सूखा प्रभावित क्षेत्रों में मृदा और जल संरक्षण को बढ़ावा देता है। – प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY): सिंचाई दक्षता बढ़ाने और “हर बूंद से अधिक फसल” सुनिश्चित करने का लक्ष्य। – राष्ट्रीय कृषि सूखा मूल्यांकन एवं निगरानी प्रणाली (NADAMS): उपग्रह डेटा का उपयोग कर सूखे की निगरानी और प्रारंभिक चेतावनी प्रदान करता है। – राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन (NMSA): जलवायु-लचीली फसलों और आकस्मिक फसल योजनाओं को बढ़ावा दे रहा है। संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण से निपटने का सम्मेलन (UNCCD) – UNCCD की स्थापना 1994 में भूमि की रक्षा और पुनर्स्थापन के लिए की गई थी ताकि एक सुरक्षित, न्यायसंगत और अधिक सतत भविष्य सुनिश्चित किया जा सके। यह मरुस्थलीकरण और सूखे के प्रभावों से निपटने के लिए स्थापित एकमात्र कानूनी रूप से बाध्यकारी ढांचा है। इसमें 197 पक्ष शामिल हैं — 196 देश और यूरोपीय संघ। |
Source: OECD
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