
सातवाहन साम्राज्य एक प्रमुख प्राचीन भारतीय राजवंश था जिसने पहली शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी ईस्वी की शुरुआत तक दक्कन क्षेत्र पर शासन किया। भारतीय इतिहास के इस प्रारंभिक काल के दौरान दक्षिण और मध्य भारत के राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिदृश्य को आकार देने में उनका शासन महत्वपूर्ण था। इस लेख का उद्देश्य सातवाहन साम्राज्य की उत्पत्ति, राजनीतिक इतिहास, प्रशासन, समाज, अर्थव्यवस्था, धर्म, साहित्य और वास्तुकला का विस्तार से अध्ययन करना है।
सातवाहन राजवंश के बारे में
- सातवाहन राजवंश पहली शताब्दी ईसा पूर्व और तीसरी शताब्दी ईस्वी की शुरुआत के बीच फला-फूला और यह सबसे महत्वपूर्ण प्रारंभिक भारतीय राजवंशों में से एक था।
- दक्कन क्षेत्र में उत्पन्न, सातवाहनों ने एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की जिसने प्राचीन भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- उन्हें अक्सर दक्षिण भारतीय संस्कृति के विकास की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।
- वे मौर्य साम्राज्य के पतन और दक्षिण भारत की बाद की शक्तियों के उदय के बीच के संक्रमण काल में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरे।
सातवाहन वंश की उत्पत्ति
- सातवाहनों का प्रारंभिक इतिहास दक्कन पठार से जुड़ा हुआ है, जहाँ वे मौर्य साम्राज्य के विघटन के बाद एक शक्तिशाली शक्ति के रूप में उभरे।
- सिमुक ने राजवंश की स्थापना की और वह सातवाहनों का पहला महत्वपूर्ण शासक था।
- उनके नेतृत्व में और उनके उत्तराधिकारियों के शासनकाल में सातवाहनों ने अपना प्रभाव विस्तार किया और दक्कन एवं मध्य भारत के कुछ हिस्सों में अपनी सत्ता को सुदृढ़ किया।
- अपने चरम पर, सातवाहन साम्राज्य की भौगोलिक सीमा में आधुनिक महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और मध्य प्रदेश के महत्वपूर्ण हिस्से शामिल थे, जोकि इस क्षेत्र में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरे।
सातवाहन राजवंश का राजनीतिक इतिहास
- सातवाहनों का राजनीतिक इतिहास कई उल्लेखनीय राजाओं के शासनकाल, क्षेत्रीय विस्तार और पड़ोसी राज्यों के साथ संबंधों से चिह्नित है।
- सातवाहन राजवंश, जो पहली शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास उत्तर-पश्चिमी दक्कन में उभरा, ने इस क्षेत्र के इतिहास को महत्वपूर्ण रूप से आकार दिया।
- प्रतिष्ठान (आधुनिक महाराष्ट्र में पैठण) में अपने केन्द्र के साथ, सातवाहनों ने दक्कन और मध्य भारत के बड़े हिस्से पर अपना प्रभाव स्थापित किया।
सातवाहन वंश के प्रमुख राजा और उनके शासनकाल
- इस राजवंश की स्थापना सिमुक ने की थी, जिसने सातवाहन शासन की शुरुआती नींव रखी।
- हालाँकि, गौतमीपुत्र शतकर्णी (लगभग 106-130 ई.) के शासनकाल में सातवाहन अपने चरम पर पहुँच गए।
- गौतमीपुत्र शतकर्णी को शकों के खिलाफ़ अपने सफल सैन्य अभियानों और राज्य की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने के लिए याद किया जाता है।
- उसके बाद, वशिष्ठीपुत्र पुलामयी (लगभग 130-154 ई.) ने प्रतिष्ठान में अपनी राजधानी स्थापित करके साम्राज्य का विस्तार और सुदृढ़ीकरण जारी रखा।
सातवाहन वंश में प्रमुख घटनाएँ और क्षेत्रीय विस्तार
- सातवाहनों ने अपने राज्य का विस्तार करते हुए कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और मध्य भारत के कई हिस्सों पर प्रभावी नियंत्रण स्थापित किया।
- राज्य के प्रारंभिक विस्तार की विशेषता कण्व वंश का उन्मूलन थी, जिससे सातवाहन दक्कन और मध्य भारत में मौर्य वंश के उत्तराधिकारी के रूप में उभरे।
- उनकी शक्ति को सबसे बड़ी चुनौती शकों से मिली, जिन्होंने एक समय सातवाहनों को पराजित कर दिया था।
- हालाँकि, गौतमिपुत्र शातकर्णी के शासनकाल में राज्य को पुनः स्थापित किया गया और सातवाहन वर्चस्व को फिर से सुदृढ़ किया गया।
सातवाहन राजवंश का राजनीतिक प्रशासन
- सातवाहन प्रशासन अत्यंत संगठित था और इसकी संरचना स्पष्ट रूप से परिभाषित थी।
- सातवाहनों के क्षेत्र प्रशासनिक प्रभागों में विभाजित थे जिन्हें ‘चर’ के नाम से जाना जाता था।
- अमात्य, महामात्र और महासेनापति जैसे विभिन्न अधिकारी शासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
- प्रशासन धर्मशास्त्रों के दिशा-निर्देशों का पालन करता था, जिसमें राजा को धर्म के रक्षक के रूप में चित्रित किया जाता था, जिसमें राम, भीम और अर्जुन जैसे पौराणिक नायकों के गुण समाहित होते थे।
- उनके प्रशासन में सैन्य और सामंती विशेषताएँ महत्वपूर्ण थीं। सेनापति या मुख्य सैन्य कमांडर को अक्सर प्रांतीय गवर्नर के रूप में नियुक्त किया जाता था, जो उनके शासन की सैन्य प्रकृति को उजागर करता था।
- ग्रामीण क्षेत्रों का प्रशासन गुल्मिका द्वारा किया जाता था, जो वहाँ तैनात सैन्य रेजिमेंट का प्रमुख होता था।
- सातवाहन साम्राज्य में सामंतों के तीन स्तर थे:
- सबसे उच्च स्तर राजा द्वारा बनाया जाता था, जिसके पास सिक्के ढालने का अधिकार था,
- दूसरे स्तर में महाभोज शामिल थे,
- तीसरे स्तर में सेनापति शामिल थे।
- सातवाहनों ने ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं को कर-मुक्त गाँव देने की प्रथा भी शुरू की, जो धार्मिक संस्थाओं के प्रति उनके समर्थन और उस समय के सामाजिक-धार्मिक परिदृश्य में उनकी भूमिका को दर्शाता है।
सातवाहन वंश का धर्म
- जहाँ सातवाहन शिलालेखों में उन्हें ब्राह्मण बताया गया है और वैदिक यज्ञों के आयोजन पर बल दिया गया है, वहीं पुराणों में उन्हें आंध्र कहा गया है और कभी-कभी निम्न सामाजिक वर्गों से संबंधित बताया गया है।
- इस स्पष्ट विरोधाभास के बावजूद, सातवाहन धार्मिक सहिष्णुता के लिए प्रसिद्ध थे।
- उन्होंने बौद्ध विहारों को उदारतापूर्वक संरक्षण दिया, जिसकी पुष्टि अनेक ब्राह्मी लिपि में लिखे शिलालेखों से होती है।
- उनके इस संरक्षण के कारण आंध्र प्रदेश के नागार्जुनकोंडा और अमरावती जैसे स्थान बौद्ध संस्कृति और शिक्षा के प्रमुख केंद्र बन सके।
- इसके अतिरिक्त, सातवाहनों ने दक्कन क्षेत्र और उससे आगे बौद्ध धर्म के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सातवाहन वंश की अर्थव्यवस्था
- सातवाहन काल में कृषि का उल्लेखनीय विस्तार हुआ, जिसका मुख्य कारण था वनों की सफाई और सिंचाई जलाशयों का निर्माण।
- उन्हें धान की रोपाई की कला का ज्ञान था, और कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के बीच का क्षेत्र एक समृद्ध धान्य क्षेत्र (राइस बाउल) बन गया था।
- सातवाहन काल अपने उत्तम कपास उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध था, जिससे उनकी ग्रामीण अर्थव्यवस्था अत्यंत उन्नत मानी जाती है।
- सातवाहनों ने संभवतः सोने का उपयोग केवल धातु रूप में (बुलियन) किया, लेकिन कुषाणों की तरह उन्होंने सोने के सिक्के जारी नहीं किए। वे मुख्यतः सीसे (लेड) के सिक्के जारी करते थे।
- शिलालेखों में शिल्पकारों और कारीगर संघों (गिल्ड्स) का उल्लेख मिलता है और कोटालिंगला जैसे पुरातात्विक स्थलों से प्राप्त साक्ष्य बताते हैं कि इस काल में हस्तशिल्प उत्पादन भी खूब फला-फूला।
- सातवाहन काल में रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार में अत्यधिक वृद्धि हुई, और भारतीय समुद्री तट पर नियंत्रण के कारण इस व्यापार पर सातवाहनों का प्रभुत्व रहा।
- ‘पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी’ में सातवाहन वंश के दो प्रमुख व्यापारिक केंद्रों — प्रतिष्ठान और टगर (Tagara) का स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है।
सातवाहन वंश का समाज
- सातवाहन मूलतः दक्कन क्षेत्र की एक जनजाति माने जाते हैं, लेकिन समय के साथ वे ब्राह्मणवादी संस्कृति से प्रभावित हुए और उन्होंने उस चार वर्णों वाली सामाजिक व्यवस्था को पुनः स्थापित किया, जो उस समय अस्त-व्यस्त हो चुकी थी।
- भूमि दान से प्रेरित होकर बौद्ध भिक्षु स्थानीय जनजातियों को सभ्य बनाने और शिक्षित करने लगे। व्यापारियों ने भी इसमें सहयोग किया।
- व्यापार और वाणिज्य के बढ़ने से समाज में व्यापारियों और शिल्पकारों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई। गंधी (इत्र व्यापारी) और अन्य कारीगरों को शिलालेखों में दानदाता के रूप में उल्लेखित किया गया है।
- सातवाहन समाज में मातृवंशीय परंपराओं के कुछ संकेत मिलते हैं। उदाहरणस्वरूप, उनके राजाओं का नाम अक्सर उनकी माताओं के नाम पर रखा जाता था, जैसे गौतमिपुत्र और वशिष्ठिपुत्र।
- रानियाँ स्वतंत्र रूप से धार्मिक दान करती थीं और कुछ मामलों में रीजेंट (अभिभावक शासिका) की भूमिका भी निभाती थीं।
- फिर भी, सातवाहन राजपरिवार मूलतः पितृसत्तात्मक था, क्योंकि राजगद्दी का उत्तराधिकार पुरुष सदस्यों को ही प्राप्त होता था।
सातवाहन वंश का साहित्य
- सातवाहन आधिकारिक और साहित्यिक उद्देश्यों के लिए संस्कृत के बजाय प्राकृत भाषा को संरक्षण देने के लिए उल्लेखनीय थे।
- हाला की “गाथा सत्तासई”, प्राकृत कविता का एक प्रसिद्ध संकलन है, जो इस अवधि की साहित्यिक उपलब्धियों का प्रमाण है।
- सातवाहन के सभी अभिलेख प्राकृत में रचे गए थे और ब्राह्मी लिपि का उपयोग करके लिखे गए थे, जो व्यापक आबादी के लिए भाषा को सुलभ बनाने की उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
- प्राकृत के प्रति यह प्राथमिकता सातवाहनों द्वारा क्षेत्रीय भाषाओं और संस्कृतियों को संरक्षित करने और बढ़ावा देने के प्रयासों को भी उजागर करती है, जिसने दक्कन के सांस्कृतिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सातवाहन राजवंश की कला और वास्तुकला
- उत्तर-पश्चिमी दक्कन और महाराष्ट्र में कई चैत्य और विहार ठोस चट्टानों को काटकर बनाए गए थे।
- दो प्रमुख धार्मिक निर्माण थे — बौद्ध मंदिर जिन्हें चैत्य कहा जाता था, और मठ जिन्हें विहार कहा जाता था।
- चैत्य एक बड़ा सभागार होता था जिसमें कई स्तंभ होते थे, जबकि विहार एक केंद्रीय सभागार होता था जिसका प्रवेश द्वार सामने की बरामदे से होता था। सबसे प्रसिद्ध चैत्य कारले का चैत्य है।
- विहार, चैत्य के पास बने मठ होते थे, जहाँ भिक्षु निवास करते थे।
- आंध्र में कृष्णा-गोदावरी क्षेत्र में रॉक-कट वास्तुकला भी पाई गयी है।
- यह क्षेत्र बौद्ध स्थलों जैसे स्तूपों के लिए भी प्रसिद्ध है। स्तूप एक गोलाकार संरचना होती है, जो बुद्ध के अवशेषों के ऊपर निर्मित की जाती है।
निष्कर्ष
सातवाहन वंश ने दक्कन क्षेत्र पर गहरा प्रभाव डाला, जिसने राजनीतिक स्थिरता, सांस्कृतिक समृद्धि और धार्मिक विविधता में महत्वपूर्ण योगदान दिया। बौद्ध धर्म, प्राकृत साहित्य और विशिष्ट स्थापत्य कला के प्रति उनके संरक्षण ने एक स्थायी विरासत छोड़ी, जो मौर्य साम्राज्य के बाद और दक्षिण भारत के प्राचीन साम्राज्यों के पूर्व के काल को जोड़ती है। उनका प्रभाव आज भी इस क्षेत्र की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान में महसूस किया जाता है।
प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
सातवाहन राजवंश का संस्थापक कौन था?
सातवाहन राजवंश का संस्थापक सिमुक को माना जाता है। उसे पहली शताब्दी ईसा पूर्व में इस वंश की स्थापना का श्रेय दिया जाता है और दक्कन क्षेत्र में सातवाहन शासन की नींव रखने वाला माना जाता है।
सातवाहन राजवंश का दूसरा नाम क्या है?
आंध्र राजवंश सातवाहन राजवंश का दूसरा नाम है।
सातवाहन राजवंश का प्रतीक क्या था?
सातवाहन वंश का प्रतीक उज्जैन चिन्ह था, जिसमें चार या छह प्रतिच्छेदित वृत्त होते थे।
सातवाहन वंश के कुछ प्रसिद्ध राजा कौन-कौन थे?
सातवाहन वंश के कुछ प्रमुख राजा इस प्रकार हैं:
– सिमुक (संस्थापक)
– शतकर्णी प्रथम
– गौतमिपुत्र शतकर्णी
– वशिष्ठिपुत्र पुलामयी
– यज्ञ श्री शतकर्णी
सातवाहन वंश की राजधानी क्या थी?
सातवाहन राजवंश की राजधानी प्रतिष्ठान (आधुनिक महाराष्ट्र का पैठण) थी।
सातवाहन वंश का समय काल क्या था?
सातवाहन राजवंश का समय लगभग 230 ईसा पूर्व से 220 ई. तक माना जाता है।
