पाठ्यक्रम: GS2/राजव्यवस्था एवं शासन
संदर्भ
- राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय से यह परामर्श माँगी कि क्या राष्ट्रपति और राज्यपालों को राज्य विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए किसी निर्धारित समयसीमा का पालन करना चाहिए।
पृष्ठभूमि
- हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए राज्य विधेयकों पर निर्णय लेने की समयसीमा निर्धारित की।
- हालाँकि, राज्यपाल किसी विधेयक पर कार्य करने के लिए किसी समय सीमा से बाध्य नहीं है।
- इससे ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है, जहाँ राज्यपाल किसी विधेयक पर अनिश्चितकाल तक कार्य न करें। इसे “पॉकेट वीटो” कहा जाता है, हालाँकि संविधान में इस शब्दावली का आधिकारिक रूप से प्रयोग नहीं किया गया है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय सुनाया कि राज्यपाल किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते या स्वीकृति देने में विलंब नहीं कर सकते, यदि विधेयक राज्य विधानसभा द्वारा पारित या पुनः पारित कर दिया गया हो।
- इस निर्णय ने राज्यपाल के लिए विधेयकों पर कार्य करने की निम्नलिखित समयसीमा निर्धारित की:
- पुनः पारित विधेयकों के लिए एक माह।
- यदि कैबिनेट की सलाह के विपरीत विधेयक रोका जाता है, तो तीन माह।
- यह निर्णय न्यायिक अधिकार क्षेत्र की सीमा पर प्रश्न उठाता है, विशेष रूप से अनुच्छेद 142 के अंतर्गत, और क्या न्यायालय संविधानिक पदाधिकारियों जैसे राज्यपाल एवं राष्ट्रपति की जवाबदेही तय कर सकते हैं।
अनुच्छेद 142 क्या है?
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 142 सर्वोच्च न्यायालय को यह शक्ति देता है कि वह न्याय सुनिश्चित करने के लिए किसी भी लंबित मामले में कोई भी आदेश या निर्णय पारित कर सकता है।
- इसके अतिरिक्त, यह आदेश या निर्णय पूरे भारत में लागू होता है।
- अनुच्छेद 142 का महत्त्व निम्नलिखित पहलुओं में निहित है:
- यह सर्वोच्च न्यायालय को कुछ परिस्थितियों में कार्यकारी एवं विधायी कार्यों को संपन्न करने की शक्ति प्रदान करता है, जैसे सरकार या अन्य अधिकारियों को दिशा-निर्देश या आदेश देना।
- यह न्यायालय को जनहित, मानवाधिकार, संविधानिक मूल्यों या मौलिक अधिकारों से जुड़े मामलों में हस्तक्षेप करने और किसी भी उल्लंघन से उनकी रक्षा करने की अनुमति देता है।
- यह सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका को संविधान के संरक्षक एवं अंतिम न्यायनिर्णायक के रूप में सशक्त करता है।
- आलोचना: यह शक्ति शासन के पृथक्करण सिद्धांत और कार्यपालिका एवं विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप कर सकती है, जिससे न्यायिक अतिरेक या सक्रियता पर प्रश्न उठ सकते हैं।
अनुच्छेद 143 – राष्ट्रपति की सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श की शक्ति
- अनुच्छेद 143(1): राष्ट्रपति सार्वजनिक महत्त्व के किसी भी कानून या तथ्य से संबंधित प्रश्न को सर्वोच्च न्यायालय के परामर्श के लिए भेज सकते हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय उत्तर देने या अस्वीकार करने का विकल्प रखता है।
- न्यायालय की राय बाध्यकारी नहीं होती, लेकिन अत्यधिक सम्मानजनक मानी जाती है।
- इसी प्रकार की शक्ति भारत सरकार अधिनियम, 1935 के अनुभाग (section) 213 के अंतर्गत भारत के संघीय न्यायालय को प्रदान की गई थी।
- अनुच्छेद 145(3) के अंतर्गत, किसी भी ऐसे संदर्भ को कम से कम पाँच न्यायाधीशों द्वारा सुना जाना आवश्यक है, जिसके बाद सर्वोच्च न्यायालय अपना निर्णय राष्ट्रपति को बहुमत की राय के साथ भेजता है।
इस अनुच्छेद की आवश्यकता
- संविधान के अंतर्गत, राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सहायता एवं परामर्श पर कार्य करती हैं। परामर्शी अधिकार क्षेत्र उन्हें कुछ संवैधानिक मामलों में स्वतंत्र राय प्राप्त करने का साधन प्रदान करता है। यह एक शक्ति है, जिसे 1950 से अब तक कम से कम 15 बार राष्ट्रपति द्वारा उपयोग किया गया है।
निष्कर्ष
- यह मामला सिर्फ एक कानूनी जाँच नहीं है, बल्कि भारत की संघीय संरचना की एक महत्त्वपूर्ण परीक्षा है, जिसका प्रभाव केंद्र और राज्यों के बीच सत्ता संतुलन, न्यायिक निरीक्षण और संविधानिक नैतिकता पर पड़ेगा।
- इस निर्णय का परिणाम विधेयक अनुमोदन में विलंब को संबोधित करने के तरीके को पुनः परिभाषित कर सकता है और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की सुरक्षा में न्यायपालिका की भूमिका को पुनः सुदृढ़ कर सकता है।
Source: TH
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