पाठ्यक्रम: GS3/कृषि
संदर्भ
- भारतीय किसान अभी भी मुख्य रूप से चावल और गेहूँ की खेती को प्राथमिकता देते हैं, फसल विविधीकरण पर बढ़ती चर्चा के बावजूद। इसका कारण ऐतिहासिक विरासत, आर्थिक सुरक्षा, नीति प्रोत्साहन, और कृषि-पर्यावरणीय परिस्थितियों का जटिल प्रभाव है।
भारत में चावल और गेहूँ उत्पादन (2024-25)
- गेहूँ उत्पादन: अनुमानित 122.724 मिलियन टन, जो 330.8 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है।
- प्रमुख गेहूँ उत्पादक राज्य हैं: उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, बिहार, गुजरात, और महाराष्ट्र।
- चावल उत्पादन: भारत प्रतिवर्ष 120 मिलियन टन से अधिक चावल का उत्पादन करता है, जिसमें खरीफ और रबी मौसम कुल उत्पादन में योगदान देते हैं।
- चावल की खेती मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, पंजाब, आंध्र प्रदेश, और तमिलनाडु में केंद्रित है।
भारत में चावल और गेहूँ की खेती जारी रहने के कारण
- सुनिश्चित खरीद और मूल्य स्थिरता: सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के तहत चावल और गेहूँ की सुनिश्चित खरीद किसानों को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है।
- चावल और गेहूँ को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से स्थिर माँग प्राप्त होती है, जबकि अन्य फसलें बाजार मूल्य में उतार-चढ़ाव का सामना करती हैं।
- हरित क्रांति प्रभाव:हरित क्रांति के दौरान पेश की गई अर्ध-बौनी गेहूँ की किस्मों ने उपज में उल्लेखनीय वृद्धि की और फसल गिरने के जोखिम को कम किया।
- ये किस्में उर्वरक और जल के अच्छे उपयोग से अधिक उपज देती हैं, जिससे गेहूँ किसानों की पसंद बनी।
- उपज स्थिरता और सिंचाई समर्थन: चावल और गेहूँ अन्य फसलों की तुलना में कम जोखिम वाले हैं, क्योंकि वे सिंचित परिस्थितियों में मुख्य रूप से उगाए जाते हैं।
- खाद्य सुरक्षा और नीति समर्थन: भारत की खाद्य सुरक्षा में चावल और गेहूँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जिससे उन्हें नीतिगत समर्थन प्राप्त होता है।
- तकनीकी उन्नति: भारत ने दो जीन-संपादित चावल किस्मों को विकसित किया है, जिससे उपज, सूखा से प्रतिरोधकता और नाइट्रोजन दक्षता बढ़ती है।
- ये किस्में जल की खपत कम करने और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन घटाने में सहायक हैं, जिससे चावल की खेती अधिक सतत बनती है।
चावल और गेहूँ की खेती में चुनौतियाँ
- जलवायु परिवर्तन और मौसम की अनिश्चितता: बढ़ते तापमान और अनियमित वर्षा पैटर्न फसल की उपज और गुणवत्ता को प्रभावित कर सकते हैं।
- अनाज के परिपक्व होने के चरण के दौरान गर्मी से प्रेरित तनाव से उत्पादकता कम हो सकती है।
- जल संकट और संसाधन प्रबंधन:चावल अत्यधिक जल-आश्रित फसल है, जिससे पंजाब और हरियाणा में भूजल स्तर में गिरावट आ रही है।
- जल की खपत कम करने के लिए टिकाऊ सिंचाई पद्धतियों की आवश्यकता है।
- बदलते उपभोग पैटर्न:घरेलू अनाज खपत स्थिर बनी हुई है (150 मिलियन टन प्रति वर्ष), जिससे अतिरिक्त उत्पादन प्रबंधन की चिंता बढ़ रही है।
- अनाज निर्यात बढ़ने से घरेलू आपूर्ति और म,माँग संतुलित हुई है।
विकल्प के रूप में अन्य अनाज उगाना क्यों आवश्यक है?
- आर्थिक व्यवहार्यता: सरकारों को चावल की खेती से दूर जाने के इच्छुक किसानों को आर्थिक सहायता प्रदान करनी चाहिए।
- किसानों के बुवाई के फैसले मूल्य में उतार-चढ़ाव के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं, जो इस बदलाव को प्रोत्साहित करने के लिए आर्थिक प्रोत्साहन की आवश्यकता को दर्शाता है।
- जलवायु प्रतिरोधकता: चावल की तुलना में बाजरा, मक्का और ज्वार जलवायु परिवर्तनशीलता से कम प्रभावित होते हैं।
- चावल की खेती में जल की अधिक खपत होती है और इससे मीथेन उत्सर्जन होता है, जबकि वैकल्पिक अनाजों को कम पानी की आवश्यकता होती है और उनका कार्बन फुटप्रिंट कम होता है।
- वैकल्पिक अनाजों के लिए चावल के क्षेत्र का इष्टतम आवंटन जलवायु-प्रेरित उत्पादन घाटे को 11% तक कम कर सकता है।
- किसानों को दालें, बाजरा और तिलहन उगाने के लिए प्रोत्साहित करने से मिट्टी की सेहत और स्थिरता में सुधार हो सकता है।
- बाजार विकास: वैकल्पिक अनाजों के लिए आपूर्ति शृंखलाओं को मजबूत करना स्थिर माँग और मूल्य निर्धारण सुनिश्चित कर सकता है।
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