पाठ्यक्रम: GS2/राजव्यवस्था एवं शासन
सन्दर्भ
- हाल ही में, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने संसद और राज्य विधानसभाओं में जानबूझकर व्यवधान उत्पन्न करने की बढ़ती प्रवृत्ति पर चिंता व्यक्त की और इसे लोकतंत्र की भावना के लिए हानिकारक बताया।
संसदीय एवं विधायी व्यवधानों के बारे में
- भारत में संसदीय व्यवधान एक आवर्ती मुद्दा बन गया है, जिससे विधायी उत्पादकता, शासन और लोकतांत्रिक जवाबदेही के बारे में चिंताएँ बढ़ रही हैं।
- स्वतंत्रता के शुरुआती दशकों से ही इसमें व्यवधान देखे गए हैं, लेकिन विगत तीन दशकों में इसकी आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि हुई है।
- 1970 और 1980 के दशक में आपातकाल (1975-77) और आर्थिक नीतियों जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर कभी-कभार व्यवधान देखे गए।
- हालाँकि, 1990 का दशक एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था, जब गठबंधन की राजनीति के कारण लगातार व्यवधान और रणनीतिक अवरोध उत्पन्न हुए।
- पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और कर्नाटक विधानसभाओं में सभी को तीव्र व्यवधानों का सामना करना पड़ा है, जिससे कभी-कभी सदस्यों के बीच हाथापाई भी हुई।
विधायी उत्पादकता पर डेटा
- बैठक के दिनों में कमी: उदाहरण के लिए, 16वीं लोकसभा (2014-2019) में 331 बैठक के दिन थे, जो किसी भी पूर्णकालिक लोकसभा के लिए सबसे कम है। संसद का मानसून सत्र (2021) जिसमें लोकसभा ने अपने निर्धारित समय का केवल 21% और राज्यसभा ने 28% कार्य किया।
- कार्य के घंटों में कमी: 2024 का शीतकालीन सत्र इस प्रवृत्ति का उदाहरण है:
- लोकसभा: अपने निर्धारित समय का केवल 52% कार्य किया।
- राज्यसभा: 39% दक्षता से संचालित हुई।
- बार-बार व्यवधान: उदाहरण के लिए, 2024 के शीतकालीन सत्र के दौरान, व्यवधानों के कारण लोकसभा ने 65 घंटे से अधिक समय खो दिया।
- प्रश्नकाल पर प्रभाव: 2024 के शीतकालीन सत्र में:
- राज्यसभा: प्रश्नकाल 19 में से 15 दिनों तक नहीं चला।
- लोकसभा: यह 20 में से 12 दिनों में 10 मिनट से अधिक नहीं चला।
- विधायी लंबित कार्य: 2024 के शीतकालीन सत्र के दौरान, केवल एक विधेयक, भारतीय वायुयान विधेयक, 2024 पारित किया गया, जो विगत छह लोकसभा कार्यकालों में सबसे कम विधायी आउटपुट को दर्शाता है।
व्यवधान के कारण
- राजनीतिक रणनीतियाँ और विरोध संस्कृति: कभी-कभी राजनीतिक दल संवेदनशील मुद्दों पर परिचर्चा से बचने के लिए रणनीतिक रूप से व्यवधान का उपयोग करते हैं।
- विवादास्पद मुद्दे और आम सहमति का अभाव: आर्थिक सुधार, अल्पसंख्यक अधिकार और संवैधानिक संशोधन जैसे प्रमुख नीतिगत मामले प्रायः वॉकआउट और विरोध प्रदर्शन का कारण बनते हैं।
- संवाद की कमी और सामान्य सहमति तक पहुँचने की इच्छा की कमी समस्या को बढ़ा देती है।
- कृषि विधेयक (2020), नागरिकता संशोधन अधिनियम (2019) और GST रोलआउट (2017) जैसे कानूनों ने वॉकआउट और विरोध प्रदर्शन को बढ़ावा दिया।
- नियमों का कमज़ोर प्रवर्तन: संसद और राज्य विधानसभाओं में प्रक्रिया के नियम व्यवधानों को नियंत्रित करने के लिए तंत्र प्रदान करते हैं, लेकिन प्रायः इनका प्रवर्तन कमज़ोर होता है।
- पीठासीन अधिकारियों (अध्यक्ष, अध्यक्ष) के पास जानबूझकर कार्यवाही में बाधा डालने वाले सदस्यों को दंडित करने की सीमित शक्ति होती है।
- मीडिया का ध्यान और सार्वजनिक धारणा: कानून निर्माता कभी-कभी मीडिया में दृश्यता प्राप्त करने के लिए व्यवधानों का उपयोग एक रणनीति के रूप में करते हैं।
- महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर जनता की भावना प्रायः व्यवधानों को बढ़ावा देती है, क्योंकि पार्टियाँ लोकप्रिय कारणों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने का प्रयास करती हैं।
- रचनात्मक परिचर्चा में गिरावट: संरचित परिचर्चा में उल्लेखनीय गिरावट दर्ज हुई है, सार्थक चर्चाओं की जगह व्यवधानों ने ले ली है।
- संसदीय प्रश्नकाल और शून्यकाल, जो विचार-विमर्श के लिए होते हैं, प्रायः बाधित होते हैं।
- नृजातीय और क्षेत्रीय मुद्दे: नृजाती-आधारित नीतियाँ, संघीय संघर्ष और क्षेत्रीय माँग जैसे मुद्दे प्रायः व्यवधानों का कारण बनते हैं।
- सांसदों का निलंबन: कई सत्रों में सांसदों को सामूहिक रूप से निलंबित किया गया, जिससे राजनीतिक गतिरोध बढ़ गया।
व्यवधानों का प्रभाव
- विधायी पक्षाघात: बार-बार व्यवधान के कारण महत्त्वपूर्ण विधेयकों और नीतियों को स्थगित या विलंबित किया जाता है।
- राष्ट्रीय सुरक्षा पर महत्त्वपूर्ण बजटीय चर्चाएँ और बहसें प्रभावित होती हैं।
- सार्वजनिक विश्वास का क्षरण: जब कानून निर्माता अव्यवस्थित आचरण में लिप्त होते हैं तो नागरिक विधायी संस्थाओं में विश्वास खो देते हैं।
- मतदाताओं के मोहभंग के कारण लोकतांत्रिक भागीदारी में उदासीनता आ सकती है।
- आर्थिक और प्रशासनिक लागत: अनुत्पादक संसदीय सत्रों के कारण करदाताओं के पैसे की बर्बादी। प्रमुख कानूनों और नीतियों को लागू करने में प्रशासनिक विलंब।
संसद और राज्य विधानसभाओं में व्यवधान कम करने के लिए प्रमुख सुधार
- नियमों का सख्ती से पालन: अव्यवस्थित आचरण करने वाले सदस्यों को निलंबित करने के लिए नियम 374A (लोकसभा) और नियम 255 (राज्यसभा) का कार्यान्वयन।
- व्यवधानों के कारण अनावश्यक स्थगन को रोकने के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देशों की शुरूआत।
- विधायकों के लिए आचार संहिता: एक अनिवार्य आचार संहिता का प्रस्ताव जो बार-बार व्यवधानों को दंडित करता है।
- व्यवधानों की समीक्षा करने और कार्रवाई की सिफारिश करने के लिए संसदीय आचरण समिति की स्थापना।
- प्रौद्योगिकी का बढ़ता उपयोग: सदस्यों को जवाबदेह बनाने के लिए व्यवधानों की लाइव ट्रैकिंग और दस्तावेज़ीकरण।
- कार्यवाही में बाधा डालने वालों के नाम प्रदर्शित करने वाली डिजिटल स्क्रीन।
अन्य संभावित समाधान
- संस्थागत सुधार: पीठासीन अधिकारियों को अनुशासनात्मक कार्रवाई करने के लिए अधिक स्वायत्तता सुनिश्चित करें।
- एक स्वतंत्र संसदीय आचार समिति की स्थापना करना।
- संवाद और आम सहमति बनाने को प्रोत्साहित करें: सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों के बीच विधान-पूर्व परामर्श।
- संसदीय सत्रों से पहले विवादों को हल करने के लिए मध्यस्थता समितियों का उपयोग।
- संविधान क्लब अनौपचारिक चर्चाओं और नीतिगत संवादों के लिए एक मंच के रूप में कार्य करेगा, जो लोकतांत्रिक विमर्श एवं विचारशीलता को बढ़ावा देगा।
- सार्वजनिक उत्तरदायित्व उपाय: व्यवधान-ट्रैकिंग तंत्र की शुरुआत करें, जहाँ नागरिक अनुत्पादक घंटों की निगरानी कर सकें।
- मीडिया कवरेज को प्रोत्साहित करना जो नाटकीयता को उजागर करने के बजाय परिचर्चा को बढ़ावा देना।
- शून्यकाल और प्रश्नकाल में सुधार: विपक्ष को संरचित विमर्श के स्लॉट प्रदान करने से विरोध के साधन के रूप में व्यवधान की आवश्यकता कम हो सकती है।
- दलबदल विरोधी कानून पर फिर से विचार करना: दलों के अन्दर असहमति को रोकने के लिए दलबदल विरोधी कानून के दुरुपयोग ने कई विधायकों को रचनात्मक असहमति के बजाय व्यवधान के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करने के लिए मजबूर किया है।
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