सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू कामगारों के कानूनी संरक्षण  का समर्थन किया

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समाचार में

  • एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए भारत के उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार को घरेलू कामगारों के लिए एक अलग कानून की आवश्यकता की जाँच करने का निर्देश दिया है।
    • न्यायालय ने उनके लाभ, संरक्षण एवं अधिकारों के विनियमन के लिए कानूनी ढाँचे का आकलन करने और सिफारिश करने के लिए एक अंतर-मंत्रालयी समिति के गठन का आदेश दिया है।

घरेलू कामगारों की वर्तमान स्थिति

  • परिचय: 
    • लाखों घरों में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, घरेलू कामगारों को न्यूनतम मजदूरी अधिनियम और समान पारिश्रमिक अधिनियम सहित कई श्रम कानूनों के अंतर्गत कानूनी सुरक्षा नहीं मिलती है।
    • यद्यपि कुछ राज्यों ने नियमन पेश किए हैं, उनके अधिकारों को सुनिश्चित करने वाला कोई राष्ट्रीय स्तर का कानून नहीं है।
  • भेद्यता और शोषण:
    • घरेलू कार्य एक नारी-केंद्रित व्यवसाय है, जिसमें कार्य करने वालों में से एक बड़ा भाग हाशिए के समुदायों की महिलाएँ हैं।
    • कर्मचारियों को कम वेतन, रोजगारो की असुरक्षा और अतिरिक्त वेतन के बिना कार्य के भार में वृद्धि का सामना करना पड़ता है।
    • सामाजिक सुरक्षा उपाय लगभग न के बराबर हैं, जिससे कर्मचारी वित्तीय संकटों के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं।
    • घरेलू कार्य को सामाजिक रूप से कम आंका जाता है और इसे एक अंतर्निहित कौशल के रूप में माना जाता है जो सभी महिलाओं के पास होना चाहिए, जो इसे अदृश्य बनाता है तथा मान्यता की कमी में योगदान देता है।

चुनौतियाँ और न्यायिक हस्तक्षेप

  • आई.एल.ओ. कन्वेंशन 189: भारत ने घरेलू कामगारों के अधिकारों पर इस वैश्विक मानक की पुष्टि नहीं की है, जो उचित वेतन, सामाजिक सुरक्षा और दुर्व्यवहार के विरुद्ध सुरक्षा को अनिवार्य बनाता है। 
  • प्लेसमेंट एजेंसियों पर न्यायिक आदेश: उच्चतम न्यायालय ने पहले प्लेसमेंट एजेंसियों के पंजीकरण का निर्देश दिया था, लेकिन प्रवर्तन कमजोर बना हुआ है, जिससे श्रमिक असुरक्षित हैं। 
  • जटिल रोजगार संरचनाएँ: घरेलू कार्य कई रूपों में मौजूद है – अंशकालिक, पूर्णकालिक, जिससे मानकीकृत सुरक्षा को लागू करना मुश्किल हो जाता है।

समावेशी कानून की आवश्यकता

घरेलू कामगारों की विशिष्ट चुनौतियों से निपटने के लिए उनके लिए एक पृथक कानून आवश्यक है:

  • रोजगार का प्रमाण: कानूनी सुरक्षा लागू करने के लिए रोजगार के औपचारिक दस्तावेज की आवश्यकता होती है, जिसे वर्तमान में श्रमिकों के लिए प्राप्त करना मुश्किल है।
  •  नियोक्ता प्रतिरोध: कई नियोक्ता स्वयं को “नियोक्ता” के रूप में नहीं पहचानते हैं या अपने घरों को औपचारिक कार्यस्थल के रूप में मानते हैं। 
  • शक्ति असंतुलन: असममित नियोक्ता-कर्मचारी संबंध – जहाँ नियोक्ता का निजी स्थान श्रमिक का कार्यस्थल है – निगरानी और विनियमन को सीमित करता है।

कार्यान्वयन में अवसर और चुनौतियाँ

  • मूलभूत अधिकारों को सुनिश्चित करना: एक सुव्यवस्थित कानून न्यूनतम मजदूरी स्थापित कर सकता है, कार्य के घंटों को विनियमित कर सकता है, तथा सामाजिक सुरक्षा प्रदान कर सकता है, जिससे घरेलू कामगारों की स्थिति में उल्लेखनीय सुधार हो सकता है।
  • शक्ति पदानुक्रम को पुनः परिभाषित करना: कानूनी सुरक्षा मौजूदा शक्ति गतिशीलता को चुनौती देगी तथा घरेलू कार्य और देखभाल के कार्य के मूल्य को पहचानेगी।
  • क्षेत्रीय विचार: केरल और दिल्ली जैसे राज्यों ने घरेलू कामगारों के लिए उपाय लागू किए हैं, जो राष्ट्रीय कानून के लिए मॉडल के रूप में काम कर सकते हैं।
  • प्रवर्तन में चुनौतियाँ: नए कानून के साथ भी, प्रभावी कार्यान्वयन एक प्रमुख चुनौती बनी हुई है, जिसके लिए मजबूत निगरानी तंत्र और नियोक्ता की जवाबदेही की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

  • उच्चतम न्यायालय का निर्देश घरेलू कामगारों की सुरक्षा के लिए एक राष्ट्रीय कानून की वकालत करने का एक महत्त्वपूर्ण अवसर प्रस्तुत करता है। हालाँकि अकेले कानून से कार्य करने की स्थितियों में तुरंत परिवर्तन नहीं आ सकता है, लेकिन यह उनके अधिकारों को मान्यता देने, उचित वेतन सुनिश्चित करने और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने की दिशा में एक आवश्यक पहला कदम है। वास्तविक प्रभाव समिति की सिफारिशों और सार्थक सुधारों को लागू करने के लिए केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता पर निर्भर करेगा।

Source: IE