पाठ्यक्रम :GS2/शासन
समाचारों में
- हाल ही में, हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने 2024 के राजनीतिक संकट के दौरान लोकतंत्र की रक्षा में दल-बदल विरोधी कानून की प्रमुख भूमिका को रेखांकित किया।
दल-बदल क्या है?
- यह तब होता है जब कोई सदस्य स्वेच्छा से अपनी पार्टी त्याग देता है, पार्टी के निर्देशों के विरुद्ध मतदान करता है, या पार्टी नेतृत्व के निर्देश के बावजूद सदन से अनुपस्थित रहता है।
दल-बदल विरोधी कानून
- संविधान की दसवीं अनुसूची, जिसे सामान्यतः दल-बदल विरोधी कानून कहा जाता है, 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से भारत में लागू किया गया था।
- इसका उद्देश्य विधायकों द्वारा लगातार पार्टी बदलने की प्रवृत्ति को रोकना था, जिससे चुनी हुई सरकारें अस्थिर होती थीं और लोकतांत्रिक जनादेश कमजोर होता था।
- प्रसिद्ध “आया राम, गया राम” घटना ने उस अनैतिक राजनीतिक संस्कृति को दर्शाया जिसमें विधायक व्यक्तिगत लाभ के लिए बार-बार निष्ठा बदलते थे, जिससे मतदाताओं का विश्वास टूटता था और सरकारें अस्थिर होती थीं।
मुख्य प्रावधान
- यह प्रावधान करता है कि कोई भी सदस्य दल-बदल करता है तो उस पर किसी अन्य सदस्य की याचिका पर विधायी सदन का पीठासीन अधिकारी उसे अयोग्य ठहरा सकता है।
- यह दो प्रकार के दल-बदल को मान्यता देता है:
- (क) वह सदस्य जो स्वेच्छा से उस पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है, जिसके चिन्ह पर वह चुना गया था।
- (ख) वह सदस्य जो अपनी पार्टी द्वारा जारी निर्देश (व्हिप) के विरुद्ध मत देता है या मतदान में अनुपस्थित रहता है।
अपवाद
- प्रारंभ में दसवीं अनुसूची दो प्रकार के अपवादों की अनुमति देती थी:
- (1) यदि किसी दल के एक-तिहाई सदस्य अलग हो जाएं (विभाजन),
- (2) यदि दो-तिहाई सदस्य किसी अन्य दल में विलय का समर्थन करें (विलय)।
- 91वें संविधान संशोधन (2003) द्वारा इस कानून को मजबूत किया गया और दुरुपयोग से बचाने हेतु “विभाजन” (एक-तिहाई अपवाद) का प्रावधान हटा दिया गया।
लोकतंत्र की रक्षा में दल-बदल विरोधी कानून की भूमिका
- निर्वाचन जनादेश की रक्षा: यह कानून विधायकों को उस पार्टी से विश्वासघात करने से रोकता है, जिससे वे चुने गए हैं, जिससे मतदाताओं की पसंद का सम्मान होता है।
- उदाहरण: चुनाव के बाद “सौदेबाज़ी संस्कृति” को रोकता है जहाँ विधायक मंत्री पद के लिए निष्ठा बदलते हैं।
- सरकार की स्थिरता सुनिश्चित करना: अचानक पार्टी बदलने को हतोत्साहित कर यह कानून अविश्वास प्रस्ताव या बजट मत जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर शासन में निरंतरता बनाए रखता है।
- पार्टी अनुशासन को बढ़ावा देना: यह कानून पार्टी व्हिप के माध्यम से अनुशासन लागू करता है जो संसदीय लोकतंत्र में समन्वित कार्य के लिए आवश्यक है।
- भ्रष्टाचार और अवसरवाद पर रोक: निजी लाभ के लिए दल-बदल को हतोत्साहित कर यह कानून रिश्वतखोरी और “हॉर्स ट्रेडिंग” जैसी अनैतिक प्रथाओं को कम करता है।
आलोचनाएं
- अध्यक्ष का विवेक और देरी: अयोग्यता तय करने के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है।
- राजनीतिक पूर्वाग्रह प्रायः निष्पक्ष निर्णय को प्रभावित करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने केशम मेघचंद्र सिंह बनाम मणिपुर स्पीकर (2020) में कहा कि निर्णय 3 माह की “उचित अवधि” में लिया जाए, पर यह बाध्यकारी नहीं है।
- व्हिप जारी करने की अपारदर्शिता: व्हिप जारी करने की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी होती है।
- संदेह रहता है कि क्या विधायक व्हिप के बारे में ठीक से सूचित हैं।
- न्यायिक सीमाएं: न्यायालय जल्दी हस्तक्षेप करने से हिचकती हैं क्योंकि “विधानमंडल की स्वायत्तता” का सम्मान करती हैं।
- इससे यथास्थिति बनी रहती है और विधायक कार्यकाल समाप्ति तक पद पर बने रहते हैं।
- समूहगत दल-बदल को हतोत्साहित करने में असफलता: कानून अब भी “दो-तिहाई समर्थन” के नाम पर विलय जैसी रणनीति को वैध कर देता है।
- हाल के उदाहरण: गोवा (2019), अरुणाचल प्रदेश (2016) दिखाते हैं कि बड़े दल इस कानून का कैसे दुरूपयोग कर सकते हैं।
निष्कर्ष और आगे की राह
- निर्णय की समय-सीमा: दसवीं अनुसूची में संशोधन कर निर्णय एक निश्चित अवधि में करना अनिवार्य बनाया जाए, नहीं तो स्वतः अयोग्यता लागू हो।
- व्हिप की पारदर्शी सूचना: व्हिप को समाचार पत्रों या ऑनलाइन माध्यम से प्रकाशित करना अनिवार्य किया जाए।
- स्वतंत्र न्यायाधिकरण: अयोग्यता मामलों को पीठासीन अधिकारी की बजाय एक निष्पक्ष निकाय (संभवत: चुनाव आयोग के अंतर्गत) द्वारा निपटाया जाए, जैसा कि नीचे समितियों ने सुझाव दिया है:
- दिनेश गोस्वामी समिति (1990)
- विधि आयोग की रिपोर्ट 170 (1999)
- संविधान के कार्य की समीक्षा हेतु राष्ट्रीय आयोग (2002)
Source: TH
Read this in English: Role of Anti-Defection Law in Protecting Democratic Integrity
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